परिचय : राजस्थान की जनजाति
2011 की जनगणना के अनुसार राजस्थान में अनुसूचित जनजातियों की आबादी 92.38 लाख है जो राज्य की कुल जनसंख्या (6.85 करोड़) का 13.5% (शहरी- 3.2 प्रतिशत, ग्रामीण- 16.9 प्रतिशत) भाग है।
जनजाति की संख्या के आधार पर राजस्थान का देश में (मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र व ओडिसा के पश्चात्) चतुर्थ स्थान है।
• कुल जनसंख्या में जनजाति जनसंख्या के प्रतिशत अंश के हिसाब से राजस्थान का देश में 13वाँ स्थान है।
• दशकीय वृद्धि दर- 30.2 प्रतिशत (ग्रामीण- 29.4 प्रतिशत, शहरी- 43.6 प्रतिशत)
• सर्वाधिक दशकीय वृद्धि दर नागौर (60.4 प्रतिशत)
• न्यूनतम दशकीय वृद्धि दर श्रीगंगानगर (-8.6 प्रतिशत) – (एकमात्र ऋणात्मक वृद्धि दर वाला जिला।)
• लिंगानुपात – 948
सर्वाधिक – डूंगरपुर (1000)
न्यूनतम – धोलपुर (843)
राजस्थान अनुसूचित जाति एवं जनजाति (संशोधन) अधिनियम 1976 के अनुसार अनुसूचित जनजातियों की सूची
में निम्नलिखित 12 जनजातियाँ हैं-
1. भील
2. भील मीना
3. डामोर
4. धनका/तडवी/वलवी/तेतरिया
5. गरासिया (राजपूत गरासिया को छोड़कर)
6. कथोड़ी
7. कोकना/कोकनी
8. कोली ढोर/टोकरे कोली/कोलचा
9. मीना
10. नायका/नायकड़ा
11. पटेलिया
12. सहरिया
भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजातियों से संबंधित उपबंध-
• अनुच्छेद 366 (य) में अनुसूचित जनजाति (ST) परिभाषित ।
• अनुच्छेद 342 के अंतर्गत अधिसूचित ।
• राष्ट्रपति अनुच्छेद 342 (1) के तहत ST नई शामिल कर सकता है या हटा सकता है।
• अनुच्छेद 334 (ए) के तहत लोकसभा में तथा अनुच्छेद 332 के तहत राज्य की विधानसभाओं में आरक्षण का प्रावधान है।
• राजस्थान में अनुसूचित जनजाति के लिए लोकसभा में 3 सीटें जबकि विधानसभा में 25 सीटें आरक्षित हैं।
• भारतीय संविधान की अनुसूची 5 में अनुसूचित जनजातियों एवं अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन, नियंत्रण एवं विकास हेतु राज्य सरकार को कार्यपालिका शक्तियाँ प्रदान की गई है। इन्हीं शक्तियों के आधार पर राजस्थान में 1975 में जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग की स्थापना की गयी।
• अनुसूचित क्षेत्र : संविधान की पाँचवी अनुसूची के भाग ‘ग’ के अनुसार वह क्षेत्र जिसे राष्ट्रपति के आदेश द्वारा अनुसूचित क्षेत्र घोषित किया गया है।
वर्तमान में राजस्थान में अनुसूचित क्षेत्र में राज्य के दक्षिण भाग में स्थित 8 जिलों की 45 तहसीलें व 5696 गाँव शामिल है।
• ‘अनुसूचित क्षेत्र’ में शामिल 8 जिलों में से 3 जिलों (बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़) के सम्पूर्ण क्षेत्र व 5 जिलों (उदयपुर, सिरोही, राजसमंद, चित्तौड़गढ़, पाली) के आंशिक क्षेत्र को शामिल किया गया है।
• राजस्थान में अनुसूचित जनजातियों का संख्या के अनुसार अवरोही क्रम –
मीणा (43,45,528) > भील (41,00,264) > गरासिया (3,14,194) > सहरिया (1,11,377)
• राज्य में सर्वाधिक संख्या में मीणा जनजाति (43.45 लाख) व सबसे कम संख्या में कोकना जनजाति (361) पाई जाती है।
• राजस्थान में सर्वाधिक जनजाति (संख्या) उदयपुर संभाग व सबसे कम जनजाति बीकानेर संभाग में पायी जाती है।
राजस्थान की जनजाति : मीणा जनजाति
• राजस्थान की जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ी व सर्वाधिक साक्षर जनजाति है।
• जयपुर (सर्वाधिक), दौसा, सवाई माधोपुर, करौली, अलवर, टोंक, भरतपुर, उदयपुर आदि में निवास करती है।
• कुल जनजाति का 49.74% है।
• उत्पत्ति- मत्स्यावतार से हुई है जो भगवान विष्णु के प्रथम अवतार है।
• इस जनजाति का उल्लेख मत्स्य पुराण में मिलता है।
• इनमे प्रमुख दो वर्ग पाये जाते हैं-
1. जमींदार मीणा (कृषि व पशुपालन का कार्य करते हैं)
2. चौकीदार मीणा (राजकीय खजाने की सुरक्षा का कार्य में सलंग्न)।
• इसके अलावा चर्मकार मीणा, पडिहार मीणा, रावत मीणा, सुरतेवाला मीणा आदि अन्य वर्ग भी पाये जाते हैं।
सामाजिक जीवन-
> संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित है।
> परिवार- पितृसत्तात्मक होते हैं।
> प्राचीन समय में ब्रह्म और गंधर्व विवाह का प्रचलन था।
> वर्तमान में विवाह अन्य समाजों की भाँति रीतिरिवाज से संपन्न होते हैं।
> पंचायतों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये पंचायतें नाता विवाह, तलाक, मौसर, चरित्रहीनता, ऋण आदि झगड़ों को निपटाती है। ये पंचायतें चार प्रकार की होती है- 1. ग्राम पंचायत 2. गौत्र पंचायत 3. क्षेत्रीय पंचायत 4. चौरासी पंचायत, चौरासी पंचायत सबसे बड़ी पंचायत है।
> गाँव/पंचायत का मुखिया पटेल कहलाता है।
> परिधान- पुरुष- धोती व कमीज तथा सिर पर साफा । महिला- घाघरा, कांचली व ओढ़नी।
> नेजा नृत्य (होली के तीसरे दिन) खैरवाड़ व डूंगरपुर में किया जाता है।
> प्रमुख मेले / आराध्य देवी देवता- चौथ का बरवाड़ा, गणेशजी (सवाई माधोपुर), महावीरजी (करौली), जीणमाता (कुलदेवी) (रैवासा, सीकर), भूरिया बाबा/गोतमेश्वर (कुलदेवता, अरणोद, प्रतापगढ़), भैरूजी, हनुमानजी, चारभुजा, महादेवजी, दुर्गामाता, बुझ देवता।
> छेड़ा फाड़ना- मीणा पुरुष द्वारा स्त्री को तलाक देने की प्रथा।
> मोरनी-मोड़ना – मीणा जनजाति की विवाह संबंधित प्रथा।
अर्थव्यवस्था-
> कृषि के साथ-साथ पशुपालन भी करते हैं।
> बटाईदारी कृषि व्यवस्था का प्रचलन है।
> आर्थिक रूप से अन्य जनजातियों की तुलना में संपन्न जनजाति है।
> सरकारी सेवा में सर्वाधिक लोग इसी जनजाति से है।
राजस्थान की जनजाति : भील जनजाति
• राजस्थान की दूसरी सबसे बड़ी जनजाति है। राजस्थान की कुल जनजाति का 39.36 प्रतिशत हिस्सा रखती है।
• ऊँचे पहाड़ों पर रहने वालों को पालवी तथा मैदानी इलाकों में रहने वालों को वागड़ी कहते हैं।
• उदयपुर, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, चित्तौड़गढ़ में निवास करती है।
• भील राजस्थान की सबसे प्राचीनतम जनजाति मानी जाती है।
• कर्नल जेम्स टॉड ने भीलों को वनपुत्र कहा था।
• उत्पत्ति- द्राविड़ियन भाषा के ‘बीलू’ से, जिसका अर्थ तीरंदाज है।
• पुराणों के अनुसार भीलों की उत्पत्ति महादेव के पुत्र निषाद से हुई है।
भीलों के दो वर्ग माने जाते हैं- सामान्य भील और मीणा भील।
सामाजिक जीवन
> पितृसत्तात्मक परिवार होते हैं तथा संयुक्त परिवार की तुलना में एकांकी परिवार अधिक पाये जाते हैं।
> बहु पत्नी प्रथा प्रचलित है।
> भाषा- ये भीली और वागड़ी भाषा बोलते हैं।
> टापरा – बाँस व लकड़ी से निर्मित भीलों का घर जिसकी छत खपरैल से बनी होती है। यह एक संपूर्ण आवास होता है जिसमें निवास के साथ अन्न भंडार व पशु रखने की व्यवस्था भी होती है।
> कू- भीलों के घर को कू भी कहते हैं।
> भौमट- मेवाड़ में भील बाहुल्य क्षेत्र को भौमट कहते हैं।
> अटक- भीलों का पितृवंशीय गौत्र अटक कहलाता है।
> भीलों के प्रमुख गौत्र- कटारा, ताबियाड़, रोत, पारगी ।
> ठेपाड़ा/ढ़ेपाड़ा- भील पुरुषों द्वारा पहने जाने वाली तंग धोती ।
> पोत्या- भील पुरुषों द्वारा सिर पर पहने जाने वाला सफेद साफा ।
> फेंटा- भील पुरुषों द्वारा पहने जाने वाला लाल/पीला/ केसरिया साफा।
> जायड़ा- भील पुरुषों द्वारा साफा पर बाँधे जाने वाली रंगीन पट्टी।
> खोयतू/लंगोटी- भील पुरुषों द्वारा कमर पर पहने जाने वाला वस्र ।
> सिंदूरी – भील महिला द्वारा पहनी जाने वाली लाल रंग की साड़ी।
> पिरिया- भील महिलाओं द्वारा पहने जाने वाला पीले रंग का वस्र।
> कछाव- भील महिलाओं द्वारा पहने जाने वाला लाल व काले रंग का घाघरा ।
> ओढ़नी- भील विवाहित महिलाओं द्वारा तारा-भाँत की ओढ़नी, केरी भाँत की ओढ़नी, लहर भाँत की ओढ़नी, ज्वार भाँत की ओढ़नी, जामसाई साड़ी तथा भील अविवाहित महिलाओं (कुँवारी कन्याओं) द्वार चिरम भाँत ओढ़नी, पावली भाँत ओढ़नी/कटकी आदि ओढ़ी जाती है।
> गोलड़- नातरा लाई हुई स्त्री के साथ आये हुए बच्चे।
> झगड़ा- नातरा करने वाले पुरुष द्वारा दी जाने वाली राशि।
> मायस – नातरा करने वाले पुरुष द्वारा चुकाई जाने वाली राशि/ अनाज / पशु (जिस परिवार में लड़की जन्मी होती है, उसको देय)।
> मोर बांदिया, क्रय, विनिमय, अपहरण, साली व देवर विवाह आदि प्रथाएँ प्रचलित है।
> लोकगीत – सुवंटिया (केवल स्त्रियों द्वारा), हमसीढ़ो (पुरुष स्त्री द्वारा)।
नोट-
1. विवाह में लड़के के पिता द्वारा कन्या का मूल्य देना पड़ता है जिसे दापा कहा जाता है।
2. इनमें गोल गाधेड़ो प्रथा प्रचलित है जिसमें युवक साहस के कार्य द्वारा शादी के लिये युवती का चयन करता है।
नृत्य :
> गैर (हेली के अवसर पर), गवरी (राई), नेजा, हाथीमना, ढ़ोल, शिकार, मोरिया, युद्ध, द्विचकी, भगोरिया, घूमरा व लाढ़ी नृत्य।
> गवरी/राई- मेवाड़ क्षेत्र के भीलों के केवल पुरुषों द्वारा सावन-भाद्रपद माह में किया जाने वाला नृत्य/लोक नाट्य जिसको पार्वती की पूजा व शिव-भस्मासुर कथा से संबद्ध करते हैं। ये नृत्य रक्षाबंधन के दूसरे दिन से सवा माह (40 दिन) तक चलता है।
> भीलों के लिए महुआ वृक्ष का विशेष महत्त्व है। ये इससे बनी शराब का सेवन करते हैं।
प्रमुख मेले :
> बेणेश्वर मेला (डूंगरपुर)- माघ पूर्णिमा को भरता है। इसे आदिवासियों का भीलों का कुंभ भी कहते हैं।
> घोटिया अम्बा मेला (बाँसवाड़ा)- ये चैत्र मास में भरता है।
> ऋषभदेव मेला (केसरियाजी/कालाजी)- धुलेवा, उदयपुर में चैत्र कृष्ण अष्टमी को भरता है।
> गोतमेश्वर मेला, प्रतापगढ़
• राजनीतिक संगठन-
> मूल इकाई- परिवार
> छोटा गाँव (अनेक परिवारों का समूह)- फला
> बड़ा गाँव (अनेक फला का समूह)- पाल
> पाल/पंचायत का मुखिया गमेती/पालवी/पालजी
> एक ही वंश से संबंधित भीलों के गाँव के मुखिया को तदवी/ वंसाओ कहा जाता है।
> फाइरे-फाइरे भीलों का रणघोष है।
> मार्गदर्शक को बोलावा कहा जाता है।
> धार्मिक संस्कार संपन्न करवाने वाले को भगत कहा जाता है।
> झाड़-फूंक का कार्य करने वाले को भोपा कहा जाता है।
• सांस्कृतिक –
> देवता- प्रकृति पूजक, शिव (बेणेश्वर), भैरूजी।
> लोकदेवता- धराल, बिरसा मुंडा, कालाजी, गौराजी, केसरियानाथजी, खाखलदेवजी, गोविंद गुरु, लसोड़िया महाराजजी ।
> टोटम चिन्ह- भील गौत्र का संबंध टोटम से जोड़ते हैं जो एक प्राकृतिक वस्तु का चिह्न होता है जो इनकी मान्यता के अनुसार हर विपत्ति से इन्हें बचाता है। ये टोटम को अपना कुलदेवता भी मानते हैं।
> आमजा/केलड़ा माता (उदयपुर) इसे भील कुलदेवी भी मानते हैं।
> मौताणा प्रथा/मृत्यु भोज (काट्टा प्रथा) प्रचलित है।
> केसरियानाथजी/कालाजी/ऋषभदेवजी/आदिनाथजी के चढ़ी हुई केसर का पानी पीकर भील कभी झूठ नहीं बोलते।
> भील समाज में सामाजिक सुधार एवं जागृति उत्पन्न करने का कार्य करने वाले संत मावजी, सूरमलदासजी (रामादल पंथ), गुरु गोविंद गिरी (भगत पंथ व सम्पसभा की स्थापना), मोतीलाल तेजावत/बावजी (एकी आंदोलन), भोगीलाल पांड्या माणिक्यलाल वर्मा आदि ने किया।
> भराड़ी- भील जनजाति द्वारा वैवाहिक अवसरों पर बनाये जाने वाले लोकदेवी के भित्ति चित्र।
> हाथी वेंडो- विवाह की प्रथा जिसमें पवित्र वृक्ष (बाँस, पीपल, सागवान) के समक्ष फेरे लिए जाते हैं।
आर्थिक जीवन-
> आदिम कृषि कार्य, पशुपालन, शिकार, वनोत्पादों, मजदूरी पर जीवन निर्भर है।
> भीलों द्वारा की जाने वाली स्थानांतरित कृषि को वालरा कहते हैं।
> पहाड़ी ढलानों पर वनों को काटकर/जलाकर की जाने वाली स्थानान्तरित कृषि को चिमाता कहते हैं।
> मैदानी भागों में की जाने वाली स्थानान्तरित कृषि को दजिया कहा जाता है।
> भीलों द्वारा शिकार में प्रयुक्त बाण दो प्रकार के होते हैं- हरियो व रोबदो।
> भीलों द्वारा पक्षियों को पकड़ने में प्रयुक्त फँदे को फटकिया कहा जाता है।
राजस्थान की जनजाति : गरासिया जनजाति
• मीणा तथा भीलों के पश्चात् जनसंख्या की दृष्टि से राजस्थान की तीसरी सबसे बड़ी जनजाति है।
• सिरोही की आबूरोड़ एवं पिंडवाड़ा तहसील, पाली जिले की बाली, उदयपुर की गोगुंदा व कोटड़ा तहसीलों में निवास करती है। इनके घर को ‘घेर’ कहा जाता है, गाँव को ‘फालिया’ कहते हैं।
• आबू रोड़ का भाखर क्षेत्र गरासियों का मूल प्रदेश माना जाता है तथा नक्की झील (माउंट आबू) में अपने पूर्वजों की अस्थि विसर्जित करते हैं।
• ये अपनी उत्पत्ति चौहान राजपूतों से मानते हैं।
• गरासियों को मुख्यतः दो भागों में बांटा जाता है- भील गरासिया व गमेती गरासिया।
• एक अन्य वर्ग राजपूत गरासिया भी है।
सामाजिक संगठन-
> पितृसत्तात्मक व एकांकी परिवार होते हैं।
> मोर बंधिया, ताणना (तारणा), पहरावना विवाह प्रचलन में है।
सामाजिक परिवेश की दृष्टि से 3 वर्गों में विभक्त है-
1. मोटी नियात
2. नेनकी नियात
3. निचली नियात
> पंचायत का मुखिया सहलोत कहलाता है।
> गरासिया समुदाय का सबसे बड़ा परम्परागत मुखिया पटेल कहलाता है।
> नृत्य – वालर, गरबा, गैर, मोरिया, गौर, लूर, कूद, जवारा, मांदल, घूमर, रंगल-खंगल, बेरला नृत्य आदि।
> प्रमुख मेलें– मनखारो मेला (चौपानी, गुजरात), अम्बाजी का कोटेश्वर मेला, चेतर विचितर मेला (कोटड़ा), गणगौर/गौर/ अंजारी का मेला, सारकेश्वर मेला (सियावा, सिरोही)।
> गरासिया युवक मेलों में अपने जीवन साथी का चयन करते हैं।
> पहनावा- पुरुष- धोती व कमीज, सिर पर साफा।
महिला– गहरे रंग के तड़क-भड़क वाले कपड़े । महिलाएँ ललाट व ठोड़ी पर गोदना गुदवाती है।
> गरासिया लोग शिव, भैरव, दुर्गा के उपासक होते हैं।
> मृत्यु भोज (कांधिया प्रथा) प्रचलन में है।
> हेलरू– गरासिया जनजाति के विकास के लिए कार्य करने वाली सहकारी संस्था ।
> हुरे– मृतक की याद में बनाया गया मिट्टी का स्मारक।
> मोर गरासिया जनजाति का आदर्श पक्षी है।
अर्थव्यवस्था-
> अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन, शिकार, लकड़ी काटने व वनोत्पादों के एकत्रीकरण पर आधारित है।
> हरी भावरी गरासियों द्वारा की जाने वाली सामूहिक कृषि का एक रूप है।
> सोहरी- अनाज संग्रह करने की कोठियाँ।
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