गणित शिक्षण के लक्ष्य एवं उद्देश्य :
गणित शिक्षण के लक्ष्य एवं उद्देश्य समझने से पहले हमें गणित के बारे में कुछ बेसिक चीजो का ज्ञान होना जरुरी हे | तो आईये यहाँ से शुरुवात करते हे |
गणित का अर्थ/परिभाषा-
- गणित – MATHEMATICS
2. उत्पत्ति- ग्रीक भाषा के (यूनानी भाषा के) मैथमेटा (MATHEMATA)
3. वस्तुएं गिनना
4. मात्रात्मक मात्रात्मक मात्रात्मक
5. गिनना, तौलना, मापन, दूरी
6. शाब्दिक अर्थ में गणित गिनने का विज्ञान है (गणना)
7. सोच का गणितीयकरण (तार्किकीकरण)
8. संकेत/चिह्न/सूत्र विशिष्ट निष्कर्षो की उत्पत्ति करते हैं।
गणित की मूलभूत दक्षतायें – 2
(i) संख्या ज्ञात
(ii) सक्रिया ज्ञान
व्यापक अर्थ में गणित एक ऐसी प्रक्रिया है जो बालकों में अमूर्त चिंतन/आगमनात्मक चिंतन, तार्किकीकरण, सामान्यीकरण जैसी मानसिक शक्तियों का विकास करती है अर्थात् बालकों की सोच का गणितीयकरण करती है।
सुबिटाइजेशन- कम संख्या में वस्तुओं की सही मात्रा अथवा उनके कम या अधिक होने का अनुमान लगा लेना।
महत्वपूर्ण परिभाषाएं-
हॉगबेन– “गणित सभ्यता एवं संस्कृति का दर्पण है।”
रोजर बेकन– “गणित समस्त विज्ञानों का सिंहद्वार एवं कुंजी है।
लॉक– “गणित वह मार्ग है जिसके द्वारा बालकों के मन या मस्तिष्क में तर्क करने की आदत का विकास होता है।”
कॉट– “विज्ञान उतना ही यथार्थ है जितना वह गणित का प्रयोग करता है।”
नेपोलियन– “गणित की उन्नति के साथ देश की उन्नति का घनिष्ठ संबंध है।
यंग– “यदि विज्ञान का आधार स्तम्भ गणित हटा दिया जाए तो संपूर्ण भौतिकसभ्यता नष्ट हो जायेगी।”
पियर्स– “गणित वह विज्ञान है, जिसकी सहायता में आवश्यक निष्कर्ष निकाले जाते है।”
इटन– “गणित शिक्षण का वास्तविक उद्देश्य ज्ञान प्राप्त करना नहीं है वरन् शक्ति प्रदान करता है।”
प्लेटो– “गणित एक ऐसा विषय है जो मानसिक शक्तियों को प्रशिक्षित करने का अवसर प्रदान करता है। एक सुसुप्त आत्मा में चेतना एवं नवीनं जागृति उत्पन्न करने का कौशल गणित ही प्रदान करता है।”
शूल्टजे– “गणित की शिक्षा प्राथमिक रूप से मानसिक शक्तियों को प्रशिक्षित करने के लिए दी जाती है।”
गणित शिक्षण के लक्ष्य एवं उद्देश्य :
गणित की प्रकृति जानने के लिए आगे पढ़े | फिर गणित शिक्षण के लक्ष्य एवं उद्देश्य पढ़ते हे |
गणित की प्रकृति – Nature of Math
प्रत्येक विषय की अपनी एक विशिष्ट सरंचना होती है जिसका संबंध उस विषय की प्रकृति से होता है। गणित विषय की प्रकृति निम्न प्रकार है।
गणित की प्रत्येक शाखा अभिग्रहित/स्वयं सिद्धि (Axioms/ Postrlates) से प्रारम्भ होती है। अभिग्रहित/स्वयं सिद्धि गणित के ऐसे नियम/सिद्धांत होते है जिन्हें बिना किसी प्रमाण/साक्ष्य/सिद्ध किये सत्य मान लिया जाता है। ऐसे अनेक गणित नियम है। उदाहरणार्थ-
(i) प्रत्येक संख्या अपने किसी अंश से सदैव बड़ी होती है।
(ii) कोई भी संख्या अपने समस्त अंशों का कुल योग होती है।
(iii) दो सरल रेखाएं सदैव एक-दूसरे को केवल एक ही बिंदु प्रर काट सकती हैं।
(iv) संकेन्द्रीय वृत्त कभी भी एक-दूसरे को नहीं काटते है।
2. गणित की प्रकृति सर्पिलाकार (spiral) होती है अर्थात् गणित के सम्प्रत्यय (concepts) एक-दूसरे से इतने अन्तर्सम्बन्धित होते है कि बिना निचले स्तर का अधिगम किये उच्च स्तरीय अधिगम सम्भव नहीं हो सकता।
यह सर्पिलाकार प्रकृति अन्य विषयों में गणित को अपेक्षा अत्यंत कम होती है।
3. गणित के निष्कर्ष सदैव सार्वभौमिक (universal) होते है अर्थात् निष्कर्षो की एकरूपता ही उसे सार्वभौमिक/वैश्विक विषय बनाती है।
4. गणित के निष्कर्ष अविवादास्पद होते है तथा उन्हें किसी भी दशा में चुनौती नहीं दी जा सकती।
5. गणित में भावनाओं, विष्णओं, प्रतिबद्धताओं का कोई स्थान नहीं होता। गणित केवल सत्य का विवेचन करके ही निष्कर्षों की प्राप्ति में विश्वास करता है।
6. गणित में क्रमबद्धता, तार्किकता, स्पष्टता, सटीकता तथा व्यवस्थित पद विशेषता होती है।
7. गणित में अमूर्त अवधारणाओं की मूर्त व्याख्या की जाती हैं।
संख्या — अमूर्त
संख्याएँ (8, 5) — मूर्त अभिव्यक्ति
8. गणित आगमनात्मक चिंतन
9. गणित बालकों के अमूर्त चिंतन, आगमनात्मक चिंतन, सामान्यीकरण की प्रक्रिया हैं।
जैसी मानसिक शक्तियों का विकास करता हैं।
10. विज्ञान की प्रमुख शाखाओं का आधार गणित होता है तथा गणित के अधिकतम प्रयोग से ही उनमें सार्थकता आती है।
11. गणित वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करता हैं।
12. गणित की अपनी एक भाषा होती है तथा गणितीय चिह्न, संकेत, प्रतीक आदि विशिष्ट निष्कर्षो की उतपति करते है
गणित शिक्षण के लक्ष्य एवं उद्देश्य : उद्देश्य
उद्देश्य – उद्देश्य एक ऐसा व्यवहारगत परिवर्तन होते हैं जिन्हें शैक्षिक क्रियाओं (अधिगम अनुभवों) के माध्यम से बालकों में लाया जाता है।
B.S. ब्लूम ने शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के 3 ध्रुवं बताएं है-
(i) उद्देश्य (साध्य है)
(ii) सीखने का अनुभव (मध्यम/उपकरण)
(iii) मूल्यांकन (साक्ष्य/साक्ष्य)
ब्लूम की टेरोनॉमी-
व्यवहार के 3 पक्ष
(1) संज्ञानात्मक पक्ष (ज्ञानात्मक पक्ष) (Cognitive Domian)-
B.S. ब्लूम, 1956 में
मानसिक/बौद्धिक क्षमताओं से सम्बन्धित
6. मूल्यांकन (Evaluation)
5. संश्लेषण (Synthesis)
4. विश्लेषण (Analysis)
3. अनुप्रयोग/ज्ञानोपयोग (Application)
2. अवबोध (Comperhension/Understanding)
1. ज्ञान (Knowledge)
(2) भावात्मक पक्ष (Affective Domain)-
करथवाल, ब्लूम ने 1964 में
भावनाओं/संवेगो/रूचियों/अभिप्रेरणाओं/अभिवृत्तियों से संबंधित
6. चारित्रीकरण (Characterization)
5. संगठन
4. संप्रत्ययीकरण/प्रत्ययीकरण (Concepulization)
3. अनुमूल्यन (Valueing)
2. अनुक्रिया (Responding)
1. प्राप्त करना
(3) मनोशारीरिक/क्रियात्मक पक्ष/मनोगत्यात्मक पक्ष (Psychomodar Domain)-
सिम्पसन ने 1969 में
हस्तचालित क्रियाओं/गतियुक्त व्यवहार/कौशलों में संबंध
6. आदत निर्माण (Habit formation)
5. स्वाभावीकरण (Naturalization)
4. समायोजन/समन्वय/जोड़बंदी (Co-ordination)
3. परिशुद्धता/नियंत्रण (Control)
2. कार्य करना (Monipulation)
1. उद्दीपन/अनुकरण (Impulsion/Imitation)
संज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्य तथा उनसे सम्बन्धित क्रिया सूचक कार्य-
(i) ज्ञान (Knowledge)- सूचनाओं को परिभाषित करना, सूचनाओं को पहचान लेना, सूचना का प्रत्यास्मरण कर लेना, सूचना की जानकारी/ज्ञात होना।
(ii)अवबोध- (समझ/समझना)-
व्याख्या करना
सही उदाहरण देना
सही अनुमान लगाना
अनुवाद करना
त्रुटि का पता लगाना
3. अनुप्रयोग (ज्ञान) (आवेदन)-
प्राप्त किए गये तथा समझे गए ज्ञान को व्यावहारिक स्थितियों में
उपयोग करने की क्षमता
समाधान के सर्वोत्तम तरीके का चयन करना
अमूर्त समझ को मूर्त रूप में व्यक्त करने की योग्यता
(iv) विश्लेषण (Analysis)
विश्लेषण का शाब्दिक अर्थ – खण्ड-खण्ड करना/विभाजित करना।
सूचनाओं को विभाजित करके समझ विकसित करना।
सूचनाओं का वर्गीकरण करना, सूचनाओं में अंतर करना।
सूचनाओं में तुलना करना, सूचनाओं में संबंध स्थापित करना।
सूचनाओं का विश्लेषण।
(v) संश्लेषण (Synthesis)-
शाब्दिक अर्थ – इकट्ठा करना, समेटना, एकत्रित करना, जोड़ना।
विभिन्न खण्डों को एकत्रित कर नवीन निष्कर्ष का सृजन
सामान्यकरण करना (Generalisation)
संक्षिप्तीकरण करना
योजना निर्माण करना।
(vi) मूल्यांकन (Evaluation)-
निर्णय लेना
औचित्य स्थापित करना
आलोचना/प्रशंसा करना।
2. भावात्मक पक्ष के उद्देश्य तथा कार्यसूचक क्रियायें
(i)प्राप्त करना
जागरूकता
जिज्ञासा
पूछना
(ii) अनुक्रिया (Responding)-
उत्तर देना
प्रतिक्रिया देना
स्वीकार करना
सहमति देना
सक्रिय रूप से भाग लेना
iii) अनुमूल्यन (Vatring)-
वरीयता देना
प्राथमिकता देना
प्रतिबद्ध होना
वचनबद्ध होना
निष्ठा व्यक्त करना।
(vi) संप्रत्ययीकरण (Conceptualisaing)-
जब कुछ मूल्य एकत्रित होने लगते है तो बालक कुछ विचारों/भावों/concepts का निर्माण करने लगता है।
विचार-विमर्श करना
. भावनाओं का संप्रेषण
(v) संगठन (Organisation)-
व्यवहार में संशोधन/परिमार्जन आना.।
क्रमिक रूप से व्यवस्थित करने का प्रयास करना।
भावनाओं के सामान्यीकरण की ओर प्रक्त होना।
vi) चारित्रीकरण (Characterising)-
मूल्य संगठित होकर व्यक्तित्व का स्थाई अंग बन जाते है तथा व्यक्ति का स्वभाव तद्नुसार एक निश्चित स्वरूप ग्रहण कर लेता है।
3. क्रियात्मक पक्ष तथा सम्बन्धित उद्देश्यों की सूचक क्रियाएं-
मनोगत्यात्मक/मनोचालक पक्ष/Psychomotor Domain
कौशलों, हस्तचालित क्रियायें, गतियुक्त व्यवहार से सम्बन्धित ।
(i) उद्दीपन (Impulsion) / अनुकरण (Imitation)-
दूसरे व्यक्ति को देखकर उनका अनुसरण करना/नकल करना।
(ii) कार्य करना (Manipulation)- दिए गए निर्देशों के अनुसार कार्य करना।
iii) परिशुद्धता/नियंत्रण (Control)-
अभ्यास/पुनरावृति द्वारा कौशल अर्जन में त्रुटियों को कम करते जाना तथा परिशुद्धता की ओर बढ़ना।
(iv) समन्वय (जोड़बंदी) (Co-ordination)-
एक साथ कई क्रियाओं को समन्वय के साथ करने लगता है।
(v) स्वाभावीकरण (Naturalisation)
कौशल अब स्वाभाविक/सहज रूप से अर्जित होने लगता है।
(vi) आदत निर्माणय (habit formation)-
क्रियात्मक पक्ष का उच्चतम स्तर
कौशल अर्जन पूर्ण हो जाता है तथा वह एक आदत के रूप में होता है।
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