महाराणा प्रताप का इतिहास :[1540–1597] History Of Maharana Pratap

महाराणा प्रताप

सामान्य परिचय : Maharana Pratap

महाराणा प्रताप का जन्म विक्रम संवत् (1597), ज्येष्ठ शुक्ला तृतीय (9 मई, 1540 ई.) को कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ। इनके पिता मेवाड़ के म उदयसिंह तथा माता जैवन्ताजीवंत कंवर जयवंतीबाई थी। उदयसिंह ने अपनी अन्य रानी धीरकंवर के पुत्र जगमाल को मेवाड़ का अगला राजा घोषित कर दिया। परन्तु मेवाड के सरदारों द्वारा जगमाल को शासक स्वीकार नहीं किया गया। उन्होंने महाराणा प्रताप को शासक घोषित कर दिया

इस प्रकार होली के त्योंहार के दिन 28 फरवरी, 1572 को गोगुंदा में महाराणा प्रताप का राजतिलक हुआ। बचपन में ‘किका’ के नाम से महाराणा प्रताप ने अपने पिता के साथ भाटियों, जंगलों और पहाड़ियों में रहकर कठोर जीवन बिताया।

महाराणा प्रताप का संघर्ष :

• महाराणा प्रताप को मेवाड़ की यह विकट परिस्थितियाँ तो विरासत में मिली थी, मुगलों के साथ चल रहे दीर्घकालीन संघर्ष से मेवाड़ की रावणोंतिव सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था अस्त-अस्त हो चुकी थी। अकबर अपनी महत्वकांक्षी सोच के कारण चित्तौड़ सहित मेवाड़ के अधिकांह को पर अपना अधिकार कर चुका था और अब वह बचे हुए क्षेत्र पर भी अपना अधिकार करना चाहता था। चित्तौड़ की विध्वंस और दौन दहा शं देखकर कई कवियों ने उसे आभूषण रहित विधवा स्त्री की उपमा तक दे दी थी।

• अब महाराणा प्रताप के पास दो रास्ते थे पहला तो मुगलों की अधीनता स्वीकार कर लें और विलासिता पूर्ण जीवन जीयें तथा दूसरा की स्वतंत्र रहकर मुगलों से संघर्ष करें।

• मेवाड़ी माटी के सपूत ने अपने वंश की प्रतिष्ठा के अनुकूल संघर्ष का रास्ता चुना। मुगल आक्रमणों से भयभीत मेवाड़ के सामंतों को एकत्रित का उनके सामने रघुकुल की मर्यादा की रक्षा करने और मेवाड़ को पूर्ण स्वतंत्र कराने का विश्वास दिलाया और प्रतिज्ञा की कि जब तक मेवाड़ को स्वतंत्र नहीं करा लूंगा राजमहलों में नहीं रहूंगा, पलंग पर नहीं सोऊंगा और पंचधातु के बर्तनों में भोजन नहीं करूंगा। महाराणा प्रताप ने इसी आत्मविश्वास के साथ मेवाड़ी सरदारों तथा भीलों की सहायता से स्वामीभक्त व शक्तिशाली सेना का संगठन किया और युद्ध प्रबंधन हेतु अपनी राजधानी गोगुदा से कुंभलगढ़ स्थानान्तरित की। अकबर किसी भी तरह मेवाड़ पर अधिकार चाहता था अंतः उसने सर्वप्रथम समझौते का प्रयास किया।

महाराणा प्रताप को अकबर द्वारा समझौते हेतु भेजे दूत

• अकबर ने समझौते हेतु सर्वप्रथम 1572 ई. में अपने दरबारी जलाल खाँ कोरचि को भेजा। इसी क्रम में अकबर ने अगले वर्ष महाराणा प्रताप को अधीनता स्वीकार करवाने हेतु क्रमशः मानसिंह, भगवंतदास और टोडरमल के साथ भी संधि प्रस्ताव भेजे। किन्तु महाराणा प्रताप किसी भी कीमत पर अधीनता स्वीकारने के पक्ष में नहीं था, अतः मुगल-मेवाड़ संघर्ष अवश्यम्भावी हो गया।

हल्दीघाटी का युद्ध [18 जून, 1576 ई.] :

अकबर के मन में महाराणा प्रताप का डर :

• महाराणा प्रताप द्वारा समझौता प्रस्ताव अस्वीकार कर दिये जाने के बाद अकबर मेवाड़ पर आक्रमण के लिए स्वयं मार्च, 1576 ई. में अजमेर आ पहुँचा। अजमेर से हो अकबर ने हल्दीघाटी के युद्ध की योजना बनाई तथा मुगल सेना का सेनापति मानसिंह को घोषित किया गया।
• मुगल इतिहास में पहली बार किसी हिन्दू शासक को इतनी बड़ी मुगल सेना का सेनापति बनाया गया था। इससे कुछ मुस्लिम दरबारियों में नाराजगी फैल गयी। बदायुनी ने अपने संरक्षक नकीब खां से इस युद्ध में चलने के लिए कहा तो उसने उत्तर दिया “यदि इस सेना का सेनापति एक हिन्दू न होता, तो मैं पहला व्यक्ति होता जो इस युद्ध में शामिल होता।”

युद्ध का आरम्भ : महाराणा प्रताप v/s अकबर

• अप्रैल, 1576 ई. में मानसिंह सेना लेकर मांडलगढ़ पहुँच गया। यहाँ से मानसिंह खमनौर के निकट मोलेला गाँव में आकर डेरा डाल लेता है। महाराणा प्रताप गिर्वा की घाटियों में मानसिंह से टक्कर लेना चाहते थे इसलिए उन्होंने कुंभलगढ़ से हटकर ‘लोशिंग’ गाँव आकर अपना पड़ाव डाल लिया।

• हल्दीघाटी के तंग दरें व पहाड़ियाँ मेवाड़ सैनिकों के लिए अनुकूल थे लेकिन मुगल सैनिक पहाड़ि‌यों की बजाय मैदान में युद्ध करने में ज्यादा दक्ष थे। लेकिन मानसिंह की सेना में गापी खाँ बदख्शी, ख्वाजा गयासुद्दीन अली, आसिफ खां, सैयद अहमद खाँ, सैयद हाशिम खां, जगन्नाथ कच्छवाहा, सेयद राजू, मिहत्तर खां, भगवंतदास का भाई माधोसिंह, मुजाहिद बेग जैसे सरदार मौजूद थे।

• 18 जून, 1576 ई. (जी. एन. शर्मा के अनुसार 21 जून, 1576) को खमनौर के पास, मुगल व मेवाड़ की सेना में हल्दीघाटी का यह युद्ध प्रारम्भ हो गया।
• इस युद्ध में प्रताप के दो हाथी लूना और रामप्रसाद शामिल हुए तथा मुगल हाथी गजमुख (गजमुक्ता) ने भाग लिया।
युद्ध इतना भीषण प्रारम्भ हुआ कि युद्ध में एक बार ऐसी स्थिति बन गयी थी कि दोनों सेनाओं के सैनिकों में भेद कर पाना मुश्किल हो रहा था। उस समय मुगल सेनापति आसफ खाँ ने कहा कि “तुम तीर चलाते जाओ, राजपूत किसी भी ओर का मारा जाये इससे इस्लाम को तो लाभ ही होगा।”

हाशिम खां और आसफ खां के चोटिल हो जाने तथा जगन्नाथ कच्छवाह के मारे जाने के बाद मुगल सेना भागने लग जाती है तो जगन्नाथ कड़ाह की जगह माधोसिंह लेता है तथा मुगल सेना के चंदावल का नेतृत्व करने वाला मिहतर खां भागती मुगल सेना के सामने आकर बोलता है” बादशाह सलामत एक बड़ी सेना लेकर स्वयं आ रहे है।” इसके बाद मुगल सेना दुगुने जोश से लड़ने लग जाती है।

• महाराणा प्रताप ‘चेतक’ पर सवार होकर मानसिंह के मरदाना हाथी पर आक्रमण करता है। चेतक अपने दोनों पैर मानसिंह के हाथी की सूंड पर टिका देता है और प्रताप मानसिंह पर आक्रमण करता है। मानसिंह होदे में नीचे झुक जाता है और बच जाता है लेकिन उसके हाथी की सूंड में लगी तलवार से चेतक की यंग कट जाती है।

महाराणा प्रताप के वीर चेतक का बलिदान :

• महाराणा प्रताप को संकट में देखकर बड़ी सादड़ी के झाला बीदा ने प्रताप का राजकीय छत्र धारण किया और युद्ध जारी रखा। हल्दीघाटी के पास बलीचा में घायल चेतक की मृत्यु हो जाती है, जहाँ उसका आज भी चबूतरा बना हुआ है। हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की ओर से झाला बौदा, मानसिंह सोनगरा, जयमल मेड़तिया का पुत्र रामदास, रामशाह और उसके तीन पुत्र (शालिवाहन, भवानी सिंह व प्रताप सिंह) वीरता का प्रदर्शन करते हुए मारे जाते हैं।

महाराणा प्रताप के सामने अकबर की सेना पीछे हटती हुई :

• महाराणा प्रताप ने युद्ध को पहाड़ों की तरफ मोड़ दिया लेकिन मानसिंह ने प्रताप का पीछा नहीं किया। इसके पीछे बदायूँनी ने तीन कारण बताये।

1.जून माह की झुलसाने वाली तेज धूप

2. मुगल सेना की अत्यधिक थकान से युद्ध की क्षमता नहीं रहना।

3. मुगल पहाड़ी इलाकों के कारण भयभीत हो गये थे।

युद्ध का परिणाम :

• युद्ध का कोई निश्चित परिणाम नहीं निकल पाया न तो मानसिंह प्रताप को पकड़ सका न ही मेवाड़ की सैन्य शक्ति को नष्ट कर सका। इसके कारण अकबर ने मानसिंह और आसफ खाँ की कुछ दिनों के लिए ड्योढ़ी बंद कर दी अर्थात् उनको दरबार में शामिल होने से वंचित कर दिया।

हल्दीघाटी युद्ध के संबंध में प्रसिद्ध कथन :

प्रसिद्ध कथनव्यक्ति
1. खमनौर का युद्धअबुल फजल
2. गोगुंदा का युद्धबदाँयूनी
3. हल्दीघाटी का युद्धजेम्स टॉड
4. बादशाह-बाग युद्धअगस्तीलाल श्रीवास्तव



“हल्दीघाटी नाम हल्दी रंगी मिट्टी के कारण नहीं पड़ा। ऐसी मिट्टी यहाँ है भी कहाँ। लाल पीली और काली तीन रंगों वाली मिट्टी है फिर हल्दीघाटी नाम क्यों दिया गया है? इसका एकमात्र कारण यह है कि यहाँ हल्दी चढ़ी कई नव विवाहिताएँ पुरुष वेश में लड़ मरीं।”. अजूबा भारत : डॉक्टर महेंद्र भानवत

हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप व अकबर

हल्दीघाटी युद्ध के बाद भी अकबर ने महाराणा प्रताप को झुकाने के लिए 1576 ई. से 1585 ई. तक अनेक सैनिक अभियान किये। शाहबाज खाँ, अब्दुरहीम खानखाना के नेतृत्व में सेनाएँ भेजी किन्तु उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिल सकी।

• शाहबाज खाँ का अभियान- अकबर ने मीरबख्शी शाहबाज खाँ को तीन बार प्रताप के विरुद्ध भेजा। 15 अक्टूबर, 1577 ई. को शाहबाज खाँ प्रथम बार मेवाड़ आया। इस समय शाहबाज खां ने केलवाड़ा गाँव पर अधिकार कर लिया। 3 अप्रैल, 1578 ई. को शाहबाज खाँ कुंभलगढ़ पर अधिकार कर लेता है, कुछ समय बाद प्रताप पुनः कुंभलगढ़ पर अधिकार कर लेता है। प्रताप राव अक्षयराज के पुत्र भाण सोनगरा को किलेदार नियुक्त कर अपने सैनिकां के साथ इंडर की तरफ चला गया और चुलिया गाँव में ठहरा। यहाँ भामाशाह और उसके भाई ताराचन्द ने पच्चीस लाख रुपये और 20 हजार अशर्फियाँ राणा को भेंट की भामाशाह की सैनिक एवं प्रशासनिक क्षमता को देखकर प्रताप ने इसी समय रामा महासहाणी के स्थान पर उसे मेवाड़ का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया।

• अब प्रताप ने अपने सेना का पुनर्गठन किया और जुलाई, 1582 ई. में मुगलों की दिवेर (राजसमंद) नामक चौकी पर हमला कर दिया। प्रताप के पुत्र अमरसिंह ने इस चौकी पर तैनात अकबर के चाचा मुगल सूबेदार सेरिमा सुल्तान खां को एक ही वार में घोड़े सहित चीर दिया। एक छोटी सी मेवाड़ी सेना की यह बहुत बड़ी विजय थी इसलिए कर्नल टॉड ने दिवेर को ‘मेवाड़ का मेराथन’ की संज्ञा दी है।

महाराणा प्रताप के विरुद्ध अंतिम अभियान

• अकबर ने 6 दिसम्बर, 1584 ई. को जगन्नाथ कछवाहा (आमेर राजा भारमल का छोटा पुत्र) को आमेर का सूबेदार बनाकर मेवाड़ अभियान हेतु भेजा। जगन्नाथ को कुछ विशेष सफलता न मिल सकी। ग्रह अकबर द्वारा भेजा गया अंतिम अभियान था। अकबर ने 1585 के बाद प्रताप के विरुद्ध कोई अभियान नहीं भेजा।

महाराणा प्रताप का शांतिकाल

• 1585 से 1597 ई. तक महाराणा प्रताप ने चित्तौड़ और मांडलगढ़ को छोड़कर शेष राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया। उसने 36 स्थानों के मुगल थाने उठा दिये जिनमें उदयुपर, मोही, गोगुन्दा, मांडल, पानरवा आदि प्रमुख थे। महाराणा प्रताप ने चावंड को अपनी राजधानी बना लिया और यहाँ कलात्मक भवनों एवं मंदिरों का निर्माण करवाया। +

व्यापार-वाणिज्य, कला, साहित्य और संगीत को प्रोत्साहन मिलने लगा। प्रताप के समय ही चावण्ड में रहते हुए चक्रपाणी। मिश्र ने तीन संस्कृत ग्रंथ T राज्याभिषेक पद्धति, मुहुर्तमाला एवं विश्ववल्लभ लिखे थे। ये ग्रंथ ग‌द्दीनशीनी की शास्त्रीय पद्धति, ज्योतिषशास्व और उद्यान विज्ञान के विषयों से संबंधित है। प्रताप के समय में 1595 ई. में हेमरत्न सूरी ने गौरा-बादल कथा व प‌द्मिनी की चौपाई, काव्य ग्रंथ की रचना की।

चारण फषि रामा सांदू और माला सांदू प्रताप की सेना के साथ रहते थे। रामा सांदू ने प्रताप के शौर्य का गुणगान करते हुए लिखा है कि ‘अकबर एक पक्षी के समान है जिसने अनन्त आकाश रूपी प्रताप की थाह पाने के लिए उड़ान भर ली, पर वह उसका पार नहीं पा रहा है। अंत में हार कर उसे अपनी हद में रहना पड़ा।’ इसके काल में ही चांवड के प्रसिद्ध चित्रकार निसारदीन (नासिरुद्दीन) हुआ।

• महाराणा प्रताप नारी सम्मान के प्रबल समर्थक थे एक बार कुंवर अमसिंह ने 1580 ई. में जब अचानक शेरपुर के मुगल शिविर पर आक्रमण कर सूबेदार अब्दुर्रहीम खानखाना के परिवार को बंदी बना लिया, तब प्रताप ने खानखाना की स्त्रियों व बच्चों को ससम्मान एवं सुरक्षित वापस लौटाने के आदेश भिजवाये।

महाराणा प्रताप की मृत्यु :

• 19 जनवरी, 1597 को 56 वर्ष 8 माह की आयु में धनुष की प्रत्यंजा चढ़ाते हुए चोटिल हो जाने के कारण महाराणा प्रताप की मृत्यु हो जाती है। चावण्ड के पास बाडोली नामक गाँव में प्रताप का अंतिम संस्कार किया गया। प्रताप के संबंध में कर्नल टॉड लिखते है कि आल्पस पर्वत के समान अरावली में ऐसी कोई भी घाटी नहीं है, जो प्रताप के किसी न किसी वोर कार्य, उज्जवल विजय या उससे अधिक कीर्तियुक्त पराजय से पवित्र न हुई हो।

महाराणा राज सिंह के बारे में जानकारी के लिये हमारे पेज को देखे click here

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