राजस्थान मंदिर स्थापत्य कला : Temple Architecture Of Rajasthan

राजस्थान मंदिर स्थापत्य कला : परिचय

स्थापत्य कला केवल नगर निर्माण, दुर्ग, महल व भवन निर्माण तक ही सीमित नहीं है, वरन् मंदिरों के निर्माण में भी स्थापत्य की बेजोड़ नमूनें प्रदर्शित हुए हैं। हालांकि राजस्थान में मौर्य व गुप्त काल से ही मंदिर स्थापत्य के प्रमाण मिलने लगे हैं परंतु 7वीं सदी को राजस्थान में मंदिर स्थापत्य का प्रारम्भिक व प्रायोगिक काल कहा जा सकता है क्योंकि सातवीं सदी से पहले जो मंदिर बने हैं, दुर्भाग्य से उनके अब अवशेष ही प्राप्त होते हैं।

राजस्थान मंदिर स्थापत्य कला के मंदिर शिल्प

राजस्थान में जो मंदिर मिलते हैं, उनमें सामान्यतः एक अलंकृत प्रवेशद्वार होता है, उसे तोरण द्वार कहते हैं। तोरण द्वार में प्रवेश करते ही उप मण्डप आता है। तत्पश्चात् विशाल आंगन आता है, जिसे सभा मण्डप कहते हैं। सभा मण्डप के आगे मूल मंदिर का प्रवेश द्वार आता है। मूल मन्दिर को गर्भगृह कहा जाता है, जिसमें मूल नायक की प्रतिमा होती है। गर्भगृह के ऊपर अलंकृत अथवा स्वर्णमण्डित शिखर होता है। गर्भगृह के चारों ओर गलियारा होता है, जिसे पद-प्रदक्षिणा पथ कहा जाता है। तेरहवीं सदी तक राजपूतों के बल एवं शौर्य की भावना मन्दिर स्थापत्य में भी प्रतिबिम्बित होती है। अब मन्दिर के चारों ओर ऊँची दीवारें, बड़े दरवाजें तथा बुर्ज बनाकर दुर्ग स्थापत्य का आभास करवाया गया। इस प्रकार के मन्दिरों में रणकपुर का जैन मन्दिर, उदयपुर का एकलिंगजी का मन्दिर, नीलकण्ठ (कुंभलगढ़) मन्दिर प्रमुख हैं।

राजस्थान मंदिर स्थापत्य कला का चरणबद्ध विकास

1. मौर्य काल से गुप्त काल के प्रारम्भ तक (300 ई.पू. से 300 ई. तक)

• इस काल में मंदिर स्थापत्य के केवल अवशेष मिलते है जिनमें दो अवशेष महत्त्वपूर्ण है –

(i) बैराठ में मौर्ययुगीन इंटों व लकड़ी के बने गोल बौद्ध मंदिर अर्थात् चैत्य के अवशेष

(ii) चितौड़ के पास नगरी में वैष्णव मंदिर के अवशेष

• इनके अतिरिक्त भरतपुर के पास नोह में ‘ जाख बाबा’ की मूर्ति तथा लालसोट में ‘बंजारे की छतरी’ में बौद्ध स्तूप की वेदिका से मिले 6 स्तंभ अन्य उदाहरण है।

• कुषाण व शुंगकाल की कुछ महत्त्वपूर्ण कलाकृतियाँ भरतपुर म्यूजियम में मिलती है जिनमें एक मुखी शिवलिंग व सिर पर घड़ा उठाये यक्ष की मूर्ति प्रमुख है। कुषाण काल का ही एक प्रमुख अवशेष पुष्कर के पास नांद में अवस्थित शिवलिंग है।

2. गुप्त व गुप्तोतर काल (300 ई. से 700 ई. तक)

• मंदिरों का वास्तविक विकास गुप्तकाल से माना जाता है। गुप्तकालीन प्रारम्भिक मंदिर सपाट छत वाले थे जो पहाड़ काटकर बनाये जाते थे। जिनमें कोटा का दर्रा मंदिर (एक नंदी मंडप युक्त), कोटा का चारचौमा मंदिर (चतुर्मुख शिवलिंग), झालरापाटन का शीतलेश्वर महादेव का मंदिर जो राजस्थान का ज्ञात तिथि (689 ई.) वाला सबसे पुराना मंदिर है। कोटा का कंसुआ का शिव मंदिर तथा चितौड़ का माकनगंज मंदिर सम्मिलित है।

• छोटी सादड़ी का भ्रमर माता का मंदिर तथा चितौड़गढ़ के पास नगरी में मिला गुप्तकालीन मंदिर इस काल के प्रमुख मंदिरों में से है।

• इनके अलावा उदयपुर व डूंगरपुर जिलों में तनेसर, केजड़, कल्याणपुर व अमेझरा स्थानों से भी पांचवी व छठी सदी की प्रतिमाएं प्राप्त हुई है।

3. गुर्जर प्रतिहार काल (700 से 1000 ई.)-

गुर्जर प्रतिहार शैली या महामारू शैली।

• लगभग 8वीं शताब्दी में राजस्थान में जो मंदिर शैली विकसित हुई उसे गुर्जर प्रतिहार या महामारू शैली के नाम से जाना जाता है।

• ऑसिया में गुर्जर-प्रतिहार शासक वत्सराज ने 8 वीं शताब्दी में जो महावीर जी का जैन मन्दिर बनवाया था, वह अब तक का प्राचीनतम जैन मन्दिर है।

• महामारु शैली का विस्तार मरू प्रदेश से निकलकर आभानेरी (बांदीकुई), चित्तौड़, बाडौली तक हुआ। इस वंश के शासक धार्मिक सहिष्णु व कलानुरागी थे, इसलिए इस काल में शैव, वैष्णव, शाक्त तथा जैन मन्दिरों का निर्माण बहुतायत से हुआ।

• अलवर जिले की मन्दिरों की श्रृखंला दसवी शताब्दी की है। हिन्दू मन्दिरों के साथ-साथ जैन मन्दिरों का भी निर्माण करवाया गया।

• इस शैली के मंदिरों में इन मंदिरों के शिल्प पर गुजरात का प्रभाव स्पष्टतः देखा जा सकता है।

महत्वपूर्ण तथ्य

• बाडोली का घाटेश्वर मंदिर (चित्तौड़गढ़)।

• 8वीं से 14वीं शताब्दी के दौरान निर्मित मंदिर जो गुर्जर-प्रतिहार काल के थे परंतु इनका निर्माण गुर्जर प्रतिहारों ने नहीं करवाया:-

• उदयपुर में जगत का अम्बिका मंदिर।

• नागदा के सास-बहू का मंदिर (उदयपुर)।

• तूस मंदेसर का सूर्य मंदिर (उदयपुर)।

• आहड़ का मीरा मंदिर (आदिवराह मंदिर)।

• वर्मन (सिरोही) का ब्राह्मणस्वामी मंदिर (खंडहर रूप में)।

• सिरोही के कासिन्द्रा का अरुणेश्वर मंदिर।

• बिलाड़ा का हर्ष मंदिर।

• एकलिंगजी का लकुलीश मंदिर।

• कुण्डाग्राम के कैटभरिपु के मंदिर।

4. सौलंकी या मारू गुर्जर शैली-

ग्यारहवीं से तेरहवीं सदी के बीच निर्मित होने वाले राजस्थान के मंदिरों को श्रेष्ठ समझा जाता है क्योंकि यह मंदिर-शिल्प के उत्कर्ष का काल था।

• इस युग में राजस्थान में काफी संख्या में बढ़े और अलंकृत मंदिर बने। जिन्हें सौलंकी या मारू गुर्जर शैली के अन्तर्गत रखा जा सकता है।

• सौलंकी या मारू शैली महामारू तथा महागुर्जर शैली का सम्मिश्रण है। महामारू शैली में अलंकरण (तक्षण कला) की प्रधानता रही है जबकि महागुर्जर शैली में स्थापत्य की प्रधानता रही है। मारू गुर्जर शैली में स्थापत्य व अलंकरण दोनों का ही प्रभाव देखने को मिलता है।

• इस शैली का पहला बड़ा मंदिर गुजरात में मोढ़ेरा का सूर्य मंदिर है। राजस्थान में चित्तौड़गढ़ का समिद्धेश्वर मंदिर इस शैली का प्रमुख मंदिर है।

• ओसियाँ का सच्चिया माता मंदिर व उसके पास बने दो छोटे विष्णु मंदिर, किराडू के तीन छोटे शिव मंदिर तथा आबू के चन्द्रावती के मंदिर इस शैली के अन्य प्रमुख मंदिर हैं।

राजस्थान के जैन मंदिर

* राजस्थान में जैन मंदिरों का निर्माण मुख्यतः सौलंकी शैली के अंतर्गत हुआ है। 10वीं से 13वीं शताब्दी के मध्य अनेक जैन मंदिरों का निर्माण हुआ जिनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध देलवाड़ा मंदिर समूह है।

प्रसिद्ध जैन मंदिर

• सोनीजी की नसियाँ अजमेर, केसरिया नाथ मंदिर – ऋषभदेव, दिलवाडा के जैन मन्दिर माउण्ट आबू, भीमाशाह मंदिर-माउण्ट आबू, पार्श्वनाथ जैन मंदिर मेड़तारोड, श्री महावीर जी – महावीर जी, रणकपुर जैन मंदिर – पाली, मूँछाला महावीर मंदिर – घाणेराव, महावीर मंदिर ओसियाँ, महावीर मंदिर – कुम्भारिया, चाँदखेड़ी मंदिर झालावाड़, मीरपुर का मंदिर – सिरोही।

5. भूमिज शैली के मंदिर –

यह नागर शैली की एक उपशैली है। इसकी विशेषता इनके शिखर से परिलक्षित होती है। मूलतः इनके शिखर अनेकाण्डक होते हैं।

भूमिज शैली के प्रमुख मंदिर निम्न प्रकार है:-

राजस्थान में भूमिज शैली का सबसे पुराना मंदिर पाली जिले में सेवाड़ी का जैन मंदिर (1010-1020 ई.) है।

मेनाल का महानालेश्वर मंदिर (पंचरथ व पंचभूम)

रामगढ़ (बाराँ) का भण्डदेवरा (सप्तरथ व सप्तभूम)

भण्डदेवरा के पास स्थित एक देवी मंदिर भी भूमिज शैली का ही मंदिर है।

बिजोलिया का उण्डेश्वर मंदिर (सप्तरथ व नवभूम)

झालरापाटन का सूर्य मंदिर (सप्तरथ व सप्तभूम)

रणकपुर का सूर्य मंदिर तथा चित्तौड़गढ़ का अद्भुतनाथ मंदिर

6. 14वीं शताब्दी एवं उसके बाद के मंदिर –

• 12 वीं से 16 वीं शताब्दी के मध्य निर्मित मन्दिर सुरक्षा की दृष्टि से दुर्गों में ही बनते रहें ताकि शत्रु से सुरक्षित रह सके।

• 17 वीं शताब्दी और उसके बाद मुगल शासकों के डर से उत्तरी भारत के मठो व मन्दिरों के आचार्य व पुजारी देव मूर्तिया लेकर राजाओं से आश्रय पाने के अभिप्राय से राजस्थान में आ गये। इनमें राधावल्लभ, निम्बार्क व पृष्टि मार्ग के आचार्य विशेष उल्लेखनीय है।

• इस काल में बड़े मंदिरों का निर्माण हुआ, जिनमें उदयपुर के जगदीशजी व एकलिंगजी मंदिर, केशोरायपाटन के मंदिर, आमेर के जगत शिरोमणि मंदिर, रणकपुर के चौमुखा जैन मंदिर, डूंगरपुर का सोमनाथ मंदिर (कच्छपघात शैली) प्रमुख है।

राजस्थान के मंदिर स्थापत्य पर इस्लामिक प्रभाव

• बीकानेर के प्रत्येक मंदिर में जहाँ कमल, तोते, मोर आदि का अंकन हिन्दू शैली में है तो साथ ही सितारे, मेहराब वाले द्वार आदि लाहौर शैली में बने हैं।

• बीकानेर के लक्ष्मीनारायण मंदिर के शिखर का नुकीलापन मेहराब शैली जैसा है।

• जोधपुर के घनश्यामजी तथा आमेर के जगत शिरोमणि मंदिर में मुगल शैली का प्रभाव दिखलाई पड़ता है।

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