राजस्थान के दुर्ग : Forts Of Rajasthan Part 2

Forts Of Rajasthan In Hindi नोट्स

गागरोण दुर्ग : Forts Of Rajasthan

• झालावाड़ जिले में कालीसिंध व आहू नदियों के संगम स्थल पर सामेलजी में स्थित इस जल दुर्ग का निर्माण 11वीं शताब्दी में डोड परमारों द्वारा करवाया गया तथा उनके नाम पर यह डोडगढ़ और धूलरगढ़ कहलाया।

• कुछ प्राचीन ग्रंथों में गागरोण के दुर्ग को ‘गर्गराटपुर’ के नाम से जाना जाता है। ‘इम्पीरियल गजेटियर’ में इसे गर्गाचार पुरोहित के निवास स्थल के कारण ‘गर्गाष्ट्र’ कहा है।

• ‘चौहान कुल कल्पद्रुम’ के अनुसार देवनसिंह खींची ने 12वीं सदी में बीजलदेव डोड को परास्त कर धूलरगढ़ पर अधिकार किया और इसका नाम गागरोन रखा।

• सघन और दुर्गम जंगलों के मध्य स्थित यह दुर्ग तीन तरफ से जल व चारों ओर गहरी खाई से घिरा हुआ है। मालवा, गुजरात, हाड़ौती और मेवाड़ का सीमावर्ती होने के कारण गागरोन का विशेष सामरिक महत्त्व था।

• यहाँ वर्तमान में मनुष्य की आवाज की हुबहू नकल करने वाले गागरोनी तोते पाये जाते हैं।

ऐतिहासिक घटनाएँ :

• 1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने गागरोन पर आक्रमण किया। परंतु जैतसी ने इसका सफलतापूर्वक बचाव किया, जैतसी के शासनकाल में खुरासान से प्रसिद्ध सूफी संत हमीदुद्दीन चिश्ती गागरोण आये। इनकी यहाँ आज भी समाधि विद्यमान है। लोग इन्हें ‘मीठे साहब’ के नाम से पूजते हैं।

• जैतसी की तीन पीढ़ी बाद पीपा राव यहाँ के शासक हुए। पीपा राव फिरोजशाह तुगलक के समकालीन थे। इन्होंने राजवैभव त्यागकर रामानंद का शिष्यत्व स्वीकार कर संत का मार्ग अपनाया। गागरोण दुर्ग के नजदीक पीपा की छतरी स्थित है।

प्रथम साका

• 1423 ई. में माण्डू के सुल्तान होशंगशाह (उर्फ आलफ खाँ गौरी) ने गागरोन पर आक्रमण किया तब यहाँ के शासक अचलदान खींची ने केसरिया का नेतृत्व किया व महिलाओं ने जौहर किया।

• अचलदास खींची के आश्रित कवि शिवदास गाडण ने अचलदास खींची री वचनिका में अचलदास खींची व होशंगशाह के मध्य युद्ध का वर्णन किया है।

• 1437 ई. में खींची शासक पाल्हणसी ने अपने मामा महाराणा कुम्भा की सहायता से दुर्गाध्यक्ष दिलशाह को परास्त कर इस पर अधिकार कर लिया।

द्वितीय साका

• 1444 ई. में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी-प्रथम के आक्रमण पर दूसरा साका हुआ। इस समय यहाँ का शासक पाल्हणसी था। जिसने केसरिया का नेतृत्व किया व महिलाओं ने जौहर किया। महमूद खिलजी ने किले पर अधिकार कर इसमें एक कोट का निर्माण करवाया तथा इस दुर्ग का नाम मुस्तफाबाद रख दिया।

• गागरोण के दूसरे साके का वर्णन ‘मआसिरे महमूदशाही‘ में मिलता है।

• कालांतर में इस दुर्ग पर राणा सांगा ने अधिकार कर लिया तथा इसे अपने विश्वास पात्र मेदिनीराय को सौंप दिया। सांगा के पश्चात् यह किला 1532 में गुजरात के बहादूर शाह, 1542 में शेरशाह सूरी तथा 1561-1562 ई. अकबर के आधिपत्य में रहा।

• अकबर ने गागरोन दुर्ग बीकानेर के राजा कल्याणमल के पुत्र पृथ्वीराज राठौड़ को जागीर में दे दिया। पृथ्वीराज राठौड़ ने वेली किशन रूक्मणी री इसी दुर्ग में रहकर लिखी।

• 1567 ई. में अपने चित्तौड़ अभियान पर जाते समय अकबर कुछ दिनों तक गागरोन दुर्ग में ठहरा था तथा इसी समय अबुल फजल के भाई फैजी ने अकबर से भेंट की थी।

• जहाँगीर ने इस दुर्ग को बूंदी के राव रतन हाड़ा को जागीर में दे दिया। शाहजहाँ के शासनकाल में जब कोटा के हाड़ाओं का बूंदी से पृथक अस्थित्व स्थापित हुआ तब शाहजहाँ ने गागरोन दुर्ग कोटा के राव मुकुन्दसिंह को जागीर में दे दिया तब से स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक यह दुर्ग कोटा के हाड़ा नरेशों के अधिकार में रहा।

दर्शनीय स्थल :

• तिहरे परकोटे से सुरक्षित इस दुर्ग में सुरजपोल, भैरवपोल गणेशपोल प्रमुख द्वार है।

• इसमें शीतलामाता का मन्दिर, मधुसूदन मंदिर (राव दुर्जनशाल द्वारा बनवाया गया), सुफी संत मिट्ठेशाह (संत हमदुद्दीन चिश्ती) की दरगाह आदि धार्मिक स्थल स्थित है।

• इस दुर्ग के समीप फिरोजशाह तुगलक के समकालीन व संत रामानन्द के शिष्य संत पीपा की छतरी स्थित है।

• इसमें जौहर कुंड, नक्कार खाना, बारूद खाना तथा औरंगजेब द्वारा निर्मित बुलंद दरवाजा आदि दर्शनीय स्थल स्थित हैं।

• इस दुर्ग में कोटा राज्य की सिक्के ढालने की टकसाल भी स्थित थी।

• कोटा राज्य के सेनापति झाला जालिमसिंह ने मराठों व पिण्डारियों से सुरक्षा हेतु एक विशाल परकोटे का निर्माण करवाया जिसे जालिमकोट कहा जाता है।

• इस दुर्ग में राजा अचलदास खींची व उसकी रानियों के प्रसिद्ध महल स्थित है।

• दुर्ग के पिछले हिस्से में कालीसिंध नदी के तट पर एक ऊँची पहाड़ी गीध कराई स्थित है जनश्रुति के अनुसार जिसका उपयोग पुराने समय में राजनैतिक बंधियों को मृत्युदण्ड देने हेतु किया जाता था।

कुम्भलगढ़ दुर्ग : Forts Of Rajasthan

• मेवाड़ व मारवाड़ की सीमा पर राजसमंद जिले के सादड़ी गाँव में स्थित इस दुर्ग की नींव मौर्य शासक संप्रति द्वारा निर्मित दुर्ग के अवशेषों पर 1448 ई. में गौड़वाड़ क्षेत्र की सुरक्षा की दृष्टि से महाराणा कुम्भा ने रखी।

• यह दुर्ग शिल्पी – मण्डन की देखरेख में 1458 ई. में बनकर तैयार हुआ। इस दुर्ग को कुंभलमेर या कुंभरमेरु उपनामों से भी जाना जाता है।

• वीर विनोद में राजस्थान के दुर्गों में कुम्भलगढ़ दुर्ग को चित्तौड़गढ़ के बाद दूसरे स्थान पर बताया है। यह दुर्ग समुद्रतल से 3568 फीट ऊँची चोटी पर बना है व नीचे की नाल (हाथीगुड़ा की नाल) से 700 फीट ऊँचाई पर स्थित है।

• इस किले में स्थित लघु दुर्ग कटारगढ़ की ऊँचाई के बारे में अबुल फजल ने लिखा है कि “यह दुर्ग इतनी बुलन्दी पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर की ओर देखने पर सिर की पगड़ी गिर जाती है।”

• सुदृढ़ प्राचीर इस दुर्ग को दुर्भेद्य बनाती है जो 36 किमी लम्बे व 7 मीटर चौड़ी है तथा अंतर्राष्ट्रीय रिकॉर्ड में दर्ज है। कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में दुर्ग की सीमावर्ती पर्वत श्रृंखलाओं के नील, श्वेत, निषाद, हेमकूट, हिमवत, गन्धमादन आदि नाम मिलते हैं।

• यह दुर्ग महाराणा प्रताप के जन्म (बादल महल में) उदयसिंह के राज्याभिषेक, महाराणा कुम्भा की हत्या तथा पन्नाधाय की स्वामी भक्ति (पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर महाराणा उदयसिंह की रक्षा की थी) का साक्षी रहा है।

• यह दुर्ग मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी रहा है जो संकटकाल में मेवाड़ राज परिवार की शरणस्थली होता था।

• कर्नल टॉड ने इस दुर्ग की तुलना (सुदृढ़ प्राचीर, बुर्ज व कंगूरों की दृष्टि से) ‘एस्ट्रकन वास्तु‘ से की है।

ऐतिहासिक घटनाएँ

1537 ई. में इसी दुर्ग में रहकर युद्ध तैयारियाँ करते हुए राणा उदयसिंह ने बनवीर को परास्त कर चित्तौड़ पर अधिकार किया।

• हल्दी घाटी के युद्ध से पूर्व महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ दुर्ग में रहकर ही युद्ध सम्बन्धित तैयारियाँ की थी तथा युद्ध के पश्चात् कुम्भलगढ़ को ही अपना निवास बनाया।

1578 ई. में मुगल सेनानायक शाहबाज खाँ ने कुंभलगढ़ दुर्ग पर आक्रमण किया, इस युद्ध में प्रताप के विश्वस्त योद्धा राव भाण सोनगरा वीरगति को प्राप्त हुए तथा अल्पकाल के लिए इस पर मुगलों का अधिकार हो गया। मुगल सेनापति शाहबाज खाँ के अन्यत्र युद्ध अभियानों में व्यस्थ होने का फायदा उठाकर महाराणा प्रताप ने कुछ समय पश्चात् इस दुर्ग को पुनः अपने अधिकार में ले लिया तब से स्वतंत्रता प्राप्ति तक यह दुर्ग मेवाड़ के शासकों के पास ही रहा।

• 19वीं शताब्दी में महाराणा फतेहसिंह द्वारा इस किले का नवीनीकरण करवाया गया था।

दर्शनीय स्थल

प्रमुख प्रवेश द्वार

• कुम्भलगढ़ दुर्ग में प्रवेश के लिए रास्ता केलवाड़ा कस्बे से जाता है जहाँ बाणमाता का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। आरेठपोल किले का पहला प्रवेश द्वार है उसके पश्चात् क्रमशः हल्लापोल, हनुमानपोल, विजयपोल, भैरवपोल, नींबूपोल, चौगानपोल, पागड़ापोल और गणेशपोल इसके प्रमुख प्रवेश द्वार है।

प्रमुख महल

• बादल महल (पैलेस ऑफ क्लाउड)

• झाली रानी का मालिया।

कटारगढ़ दुर्ग :

• यह कुम्भलगढ़ के भीतर ऊँचाई पर स्थित एक लघु दुर्ग है, इसमें स्थित कुम्भा महल जो सबसे ऊँचाई पर स्थित है जो महाराणा कुम्भा का निवास था।

• कटारगढ़ सात विशाल दरवाजों व सुदृढ़ प्राचीर से सुरक्षित है।

मुख्य मंदिर :

• कुम्भस्वामी विष्णु मंदिर (कुम्भा द्वारा निर्मित)

• नीलकंठ महादेव का मंदिर

• देवी का प्राचीन मंदिर

• झालीबाव बावड़ी, मामादेव कुण्ड (महाराणा कुम्भा की हत्या उनके पुत्र उदा ने इसी कुण्ड के पास की थी।), उड़ना राजकुमार (पृथ्वीराज राठौड़) की छतरी, दुर्ग में स्थित एक यज्ञ वेदीका आदि प्रमुख दर्शनीय स्थल है।

• कुंभस्वामी मंदिर के बाहर कुंभा द्वारा प्रशस्ति उत्कीर्ण की गई है जो वर्तमान में उदयपुर संग्रहालय में है।

आमेर दुर्ग : Forts Of Rajasthan

• जयपुर से 11 किमी. उत्तर में एक पर्वतीय ढलान पर स्थित इस दुर्ग को काच्छवाह वंश के काकिल देव ने 1036 ई. में आमेर के मीणा शासक भूट्टों से प्राप्त किया था। परवर्ती काल में भारमल व राजा मानसिंह प्रथम ने इस दुर्ग के मुख्य भागों का निर्माण करवाया।

• यह एक गिरि दुर्ग है इसे अम्बावती, अम्बिकापुर, आम्बेर आदि उपनामों से भी जाना जाता है।

• आमेर के राजप्रासाद मुख्यतः राजपूत शैली में बने है। यत्र-तत्र उनमें मुगलकाल की हिन्दु-मुस्लिम स्थापत्य कला का समन्वय भी देखने को मिलता है। आमेर के महलों की सुन्दरता से मुग्ध होकर विशप हैबर ने लिखा ‘मैंने क्रेमीलन में जो कुछ देखा है और अलम्भरा के बारे में जो कुछ सुना है, उससे भी बढ़कर ये महल हैं।’

ऐतिहासिक घटनाएँ :

• यह दुर्ग लगभग 700 वर्ष तक आमेर के काच्छवाह वंश की राजधानी रहा। काच्छवाह राजाओं के अद्भुत पराक्रम और केन्द्रीय मुगल शासको से राजनैतिक मित्रता के कारण यह प्रायः बाहरी आक्रमणों से अछूता रहा।

• 1707 ई. में मुगल सम्राट बहादुरशाह प्रथम ने इस पर अधिकार करके इसका नाम मोमिनाबाद रख दिया।

दर्शनीय स्थल

प्रमुख महल :

• दीवान-ए-आम – यह विशाल आयताकार भवन है जिसमें 40

• सुन्दर संगमरमर के खम्भे है, इसका निर्माण मिर्जा राजा जयसिंह ने करवाया था, यह राजा का आम दरबार होता था।

• दीवान-ए-खास – इसका निर्माण मिर्जा राजा जयसिंह ने करवाया था, इस कारण इसे जयमंदिर भी कहते है, यहाँ राजा अपने विशिष्ठ सामन्तों व प्रमुख लोगों के साथ विचार विमर्श करता था।

• शीश महल – इस महल की छत व दीवारों पर काँच की जड़ाई का अत्यन्त सुन्दर काम किया हुआ है, यह आमेर राज महलों में सर्वाधिक प्रसिद्ध है।

मुख्य मंदिर :

• यश मंदिर – दीवाने-ए-खास की छत पर बना हुआ यह एक लम्बे बेलनाकार कमरे के रूप में है, जिसमें सफेद संगमरमर की अत्यन्त सुन्दर जालिया लगी है तथा इसकी छत धनुषाकार है। इसका प्रयोग रानियाँ द्वारा दीवान-ए-खास का का दृश्य देखने के लिए किया जाता था।

• सुख मंदिर – दीवान-ए-खास के सामने बगीचे के दूसरी तरफ स्थित यह महल राजाओं का ग्रीष्मकालीन निवास स्थान होता था, इसके किवाड़ों पर हाथी दाँत व चंदन का सुन्दर काम किया हुआ है।

• सुहाग मंदिर (सौभाग्य मंदिर) यह गणेश पोल की छत पर स्थित एक आयताकार महल है, इसका उपयोग रानियों द्वारा मनोविनोद तथा हास परिहास के लिए किया जाता था। इसमें रंग-बिरंगे पथरों से बना एक झरना स्थित है, इस महल के किवाड़ चंदन से बने हुए है तथा उन पर हाथी दांत का सुन्दर काम किया हुआ है।

• आमेर के राजा पृथ्वीराज की रानी बालांबाई की साल महलों के पीछे की तरफ बने पुराने भवनों के पास स्थित है।

• शिलादेवी का मंदिर यह प्रवेश द्वार सिंहपोल के पार्श्व में स्थित है, इस मंदिर में स्थित शिलादेवी (महिषमर्दिनी) की कलात्मक प्रतिमा स्थापित की गई है, जिसे राजा मानसिंह पूर्वी बंगाल से लेकर आये थे।

• जगत शिरोमणी मंदिर – इस मंदिर का निर्माण राजा मानसिंह की रानी कनकावती ने अपने दिवंगत पुत्र जगतसिंह की स्मृति में करवाया था। यहाँ भगवान कृष्ण की काले पत्थर की मूर्ति स्थापित की गई है जो चित्तौड़ से लाई गई है (यह वही मूर्ति थी जिसकी पूजा मीराबाई किया करती थी)। इस मंदिर का तोरण भव्य है तथा पत्थर की बेजोड़ नक्कासी की गई है।

• नृसिंह मंदिर – इस मंदिर में स्थित सफेद संगमरमर का हिंडोला मुख्य आकर्षण है।

• यहाँ अम्बिकेश्वर महादेव मंदिर भी स्थित है।

अन्य दर्शनीय स्थल :

• आमेर दुर्ग की भोजनशाला अपने भित्ति चित्रों के लिए प्रसिद्ध है (भोजनशाला का निर्माण सवाई जयसिंह ने करवाया तथा इसमें भारत के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों के चित्र बने है)

• गणेश पोल – इसका निर्माण सवाई राजा जयसिंह द्वारा करवाया गया, यह पोल अपनी रंग-बिरंगी चित्रकारी के लिए प्रसिद्ध है। फर्ग्यूसन ने इसे दुनिया का सर्वोत्तम दरवाजा बताया।

• जलेब चौक – यह एक विशाल प्रांगण है, जो किले के ऊपर जाने के लिए प्रवेश द्वार जयपोल के भीतर स्थित है।

• दुर्ग के प्रवेश द्वार के समीप स्थित मावठा तालाब और दलाराम बाग (मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा निर्मित) भी दर्शनीय है।

जैसलमेर दुर्ग : Forts Of Rajasthan

• जैसलमेर स्थित इस दुर्ग का निर्माण रावल जैसल द्वारा 1155 ई. में करवाया गया।

• डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार रावल जैसल इस दुर्ग के कुछ भागों का निर्माण करवा पाये थे कि उनकी मृत्यु हो गई, उनके उत्तराधिकारी व पुत्र सालीवान द्वितीय ने अगले सात वर्ष तक जैसलमेर दुर्ग के अधिकांश भागों का निर्माण करवाया।

• यह चारों तरफ से मरूस्थल से घिरा धान्वन श्रेणी का दुर्ग है। इस दुर्ग के निर्माण में गहरे पीले पत्थरों का प्रयोग हुआ है जिस कारण इसे सोनार का किला, सोनारगढ़, सोनलगढ़ भी कहा जाता है।

• इस दुर्ग के निर्माण में कहीं भी पत्थरों की जुड़ाई के लिए चुने का प्रयोग नहीं किया गया है।

• यह दुर्ग त्रिकुट पहाड़ी पर स्थित है जिसे दूर से देखने पर अंगड़ाई लेते हुए सिंह के समान तथा लंगर डाले हुए जहाज के समान प्रतीत होता है।

• इस दुर्ग के बारे में प्रसिद्ध कहावत ‘यहाँ पत्थर के पैर, लोहे का शरीर व काठ के घोड़े पर सवार होकर ही पहुँचा जा सकता है।’

• यह किला दोहरे परकोटे से युक्त है, इस दोहरे परकोटे को कमरकोट कहा जाता है। इस दुर्ग में 99 बुर्जे हैं।

• यह चित्तौड़ दुर्ग के बाद राजस्थान का दूसरा लिविंग फोर्ट है।

ऐतिहासिक घटनाएँ :

ढाई साके

प्रथम साका –

अलाउद्दीन खिलजी के जैसलमेर आक्रमण के समय सम्पन्न हुआ जिसमें रावल मूलराज व कुंवर जैतसी वीर गति को प्राप्त हुए।

दूसरा साका –

• फिरोज शाह तुगलक के आक्रमण के समय द्वितीय साका सम्पन्न हुआ। इसमें रावल दूदा व त्रिलोकसी अनेक भाटी योद्धाओं के साथ युद्ध में भाग लेते हुए वीर गति को प्राप्त हुए। सोढ़ी रानी के नेतृत्व में महिलाओं ने जौहर किया।

अर्द्ध साका –

• 1550 ई. में अमीर अली के जैसलमेर आक्रमण के समय रावल लूणकरण केसरिया करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए परन्तु अन्तिम विजय भाटियों की होने के कारण महिलाओं ने जौहर नहीं किया। इसी कारण इतिहास में यह अर्द्ध साके के रूप में प्रसिद्ध है।

दर्शनीय स्थल

प्रवेश द्वार :

• अक्षयपोल किले का मुख्य प्रवेश द्वार है। किले के भीतर जाने का मार्ग धनुषाकृत्ति लिए हुए काफी घुमावदार व संकरा है। सूरजपोल, गणेशपोल व हवापोल अन्य द्वार हैं। जैसल कुआँ पेयजल का प्राचीन स्रोत है।

महल :

• सर्वोत्तम विलास (शीश महल)- महारावल अखैसिंह द्वारा निर्मित।

• रंगमहल व मोती महल – मूलराज द्वितीय द्वारा निर्मित यह महल जाली झरोखे व सुंदर अलंकरण से सुशोभित है।

• गज विलास व जवाहर विलास पत्थर का बारीक काम दर्शनीय।

• बादल महल – प्राकृतिक परिवेश में उत्कृष्ट

मंदिर :

• यहाँ पार्श्वनाथ, संभवनाथ व ऋषभदेव के जैन मंदिर स्थित है। इन मंदिरों में बारहवीं शताब्दी का निर्मित आदिनाथ का मंदिर सबसे प्राचीन मंदिर है।

• लक्ष्मीनारायण मंदिर।

• जिनभद्र सूरि ग्रंथ भंडार – यह हस्तलिखित ग्रंथों (पाण्डुलिपियों) का दुर्लभ संग्रह है।

इसमें अनेक ग्रंथ ताड़पत्रों पर लिखे गये हैं तथा वृहद् आकार के हैं।

मेहरानगढ़ दुर्ग : Forts Of Rajasthan

• जोधपुर स्थित मेहरानगढ़ दुर्ग का निर्माण 1459 ई. में राव जोधा द्वारा चिड़ियाट्रॅक पहाड़ी (प्रसिद्ध योगी चिड़ियानाथ के कारण इस पहाड़ी का नाम चिड़ियाट्रॅक पड़ा) पर करवाया।

• इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने अपनी ‘जोधपुर राज्य के इतिहास’ नामक पुस्तक में लोक विश्वास का उल्लेख किया है कि यदि किसी दुर्ग की नींव में अगर किसी जीवित व्यक्ति की बलि दी जाए तो वह दुर्ग अपने निर्माता के वंशों के हाथ से नहीं निकलता। इसी लोक विश्वास के कारण ही राजिया नामक व्यक्ति को मेहरानगढ़ की नींव में जिन्दा गाड़ दिया गया था।

• यह एक दो मंजिला गिरी दुर्ग है जो लाल बलुआ पत्थर से बना है, इसे मयूरध्वजगढ़ (मयूर के समान आकृति होने के कारण), गढ़चिंतामणि तथा मेहरानगढ़ (अपनी विशालता के कारण) आदि नामों से जाना जाता है।

• रूडयार्ड किपलिंग लम्बे समय तक इस किले में रहे तथा उन्होंने इस किले को “देवताओं, परियों और फरिश्तों द्वारा निर्मित माना है।”

• इस दुर्ग से वीर दुर्गादास राठौड़ और कीरत सिंह सोढ़ा (इनकी छतरी जयपोल गेट के पास स्थित है) की स्वामीभक्ति और त्याग की गौरवगाथाएँ भी जुड़ी हुई हैं।

ऐतिहासिक घटनाएँ :

• रावजोधा की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राव बीका (बीकानेर के संस्थापक) ने राजचिह्न लेने के लिए राव सूजा के शासनकाल में आक्रमण किया, लेकिन माता जसमादे द्वारा समझौता करवाने पर घर वापस लौट गया।

• 1544 ई. में अफगान शासक शेरशाह सूरी ने इस दुर्ग पर अधिकार किया लेकिन सूरी की मृत्यु के बाद 1545 ई. में मालदेव ने इस पर पुनः अधिकार कर लिया।

• 1565 ई. में मुगल सूबेदार हसन कुली खाँ ने राव चन्द्रसेन के शासनकाल में इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया।

• मुगल अधीनता स्वीकार करने के बाद 1582 ई. में यह दुर्ग मोटा राजा उदयसिंह को जागीर में दे दिया गया।

• 1678 ई. में जसवंत सिंह की मृत्यु के पश्चात् औरंगजेब ने इसे पूनः मुगल राज्य में मिला लिया।

• 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् अजीत सिंह ने इसे मुगल सुबेदार जफर कुली खाँ से छीन लिया तब से यह दुर्ग राठौड़ों के पास रहा।

• 1807 ई. में महाराजा मानसिंह के समय इस दुर्ग पर जयपुर महाराजा जगतसिंह द्वारा आक्रमण किया गया था। (इस आक्रमण का कारण कृष्णा कुमारी विवाद था)

• मेहरानगढ़ के चामुण्डा माता मंदिर में 30 सितम्बर, 2008 को सर्द नवरात्रा के पहले दिन भगदड़ मच गई जिस कारण 200 लोग मारे गये। इस घटना की जाँच हेतु चौपड़ा आयोग का गठन किया गया था।

दर्शनीय स्थल :

प्रवेश द्वार :

• दुर्ग के दो बाह्य प्रवेश द्वार है। पहला उत्तर-पूर्व में जयपोल (महाराणा मानसिंह द्वारा निर्मित)। दक्षिण-पश्चिम में फतेहपोल (जोधपुर से मुगल खालसा समाप्त होने के उपलक्ष्य में महाराजा अजीत सिंह द्वारा निर्मित)। दुर्ग का एक अन्य प्रमुख प्रवेश द्वार लोहापोल है जिसका निर्माण राव मालदेव द्वारा शुरू किया गया लेकिन निर्माण कार्य महाराजा विजयसिंह द्वारा पूर्ण किया गया।

• लोहापोल के साथ दो क्षत्रिय योद्धाओं धन्ना और भींवा (मामा- भांजा) की 10 खंभो वाली छतरी का निर्माण महाराजा अजीत सिंह द्वारा करवाया गया।

• ध्रुवपोल, सूरजपोल, इमरत पोल, भैरवपोल आदि दुर्ग के अन्य प्रवेश द्वार है।

महल :

• फतह महल – मुगल खालसा उठाने के उपलक्ष में महाराजा अजीत सिंह द्वारा निर्मित।

• मोती महल – महाराज सूरसिंह द्वारा निर्मित यह महल सुनहरे अलंकरण के लिए प्रसिद्ध है, इसकी छत व दीवारों पर सोने की पॉलिश का कार्य महाराजा तख्तसिंह द्वारा करवाया गया।

• फूल महल – महाराजा अभयसिंह द्वारा निर्मित यह महल पत्थर पर बारीक खुदाई के लिए प्रसिद्ध है।

• सिणगार चौकी (श्रृंगार चौकी) इसका निर्माण महाराजा तख्त सिंह द्वारा करवाया गया था, यहाँ जोधपुर के राजाओं का राजतिलक होता था।

• चौखेलाव महल, बिचला महल, तख्तविलास, अजीतविलास, उम्मेदविलास, जनाना महल आदि इमारतों का आंतरिक वैभव दर्शनीय है।

मंदिर :

• चामुण्डा माता मंदिर – इस मंदिर का निर्माण राव जोधा द्वारा दुर्ग के निर्माण के समय ही करवाया गया था, 1857 ई. में यह मंदिर बिजली गिरने के कारण खण्डित हो गया था जिसका जिर्णोद्धार महाराजा तख्त सिंह द्वारा करवाया गया।

• आनंद घन जी मंदिर- बिल्लोर पत्थर की पाँच भव्य व सजीव प्रतिमाएँ स्थापित।

• मुरली मनोहर मंदिर, नागणेची माता मंदिर (राठौड़ों की कुल देवी), भूरे खाँ की मजार आदि इस दुर्ग में स्थित प्रमुख धार्मिक स्थल है।

प्रसिद्ध तोपें :

• किलकिला- अजीत सिंह ने अहमदाबाद से बनवाई।

• शंभूबाण – अभयसिंह ने सरबलंद खाँ से छीनी थी।

• गजनीखाँ – गजसिंह ने जालौर विजय के उपरांत हासिल की थी।

• जमजमा, कड़क बिजली, नुसरत, गुब्बार, धुडधाणीद, बिच्छूबाण, मीरबख्श, रहस्यकला, गजक आदि प्रमुख तोपें है।

अन्य दर्शनीय स्थल :

• ‘पुस्तक प्रकाश केन्द्र’ पुस्तकालय (महाराजा मानसिंह द्वारा निर्मित) जिसमें दुर्लभ हस्तलिखित ग्रंथ संग्रहित हैं।

• किले की तलहटी में बसे जोधपुर शहर के चारों ओर एक सुदृढ़ प्राचीर (शहरपना) का निर्माण करवाया गया जिसमें 101 विशाल बुर्जे व 6 दरवाजे (नागौर दरवाजा, मेड़तीया दरवाजा, सोजती दरवाजा, सिवाणा दरवाजा, जालौरी दरवाजा व चाँदपोल) स्थित है।

• दुर्ग में जल आपूर्ति हेतु दो प्रमुख तालाब- राणीसर (राव जोधा की रानी जसमा हाड़ी द्वारा निर्मित), पदम सागर/पदमसर (राव गांगा की रानी प‌द्मावती द्वारा निर्मित) स्थित है।

• ख्वाबगाह का महल, तखत विलास, दौलतखाना, चोखेलाव महल, बिचला महल, रनिवास, सिलहखाना, तोपखाना आदि।

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