महाराणा सांगा का परिचय
राणा सांगा अपने तीनों भाइयों पृथ्वीराज जयमल व राजसिंह से उत्तराधिकार संघर्ष में जीतकर 1509 ई. में मेवाड का शासक बना। राणा सांगा इतिहास में ‘हिन्दुपत’ नाम से प्रसिद्ध था। उसके शरीर पर 80 घाव थे फिर भी चेहरे से राजोचित तेज टपकता था।
राणा सांगा अपने तीनों भाइयों पृथ्वीराज जयमल व राजसिंह से उत्तराधिकार संघर्ष में जीतकर 1509 ई. में मेवाड का शासक बना। राणा सांगा इतिहास में ‘हिन्दुपत’ नाम से प्रसिद्ध था। उसके शरीर पर 80 घाव थे फिर भी चेहरे से राजोचित तेज टपकता था।
महाराणा सांगा का मालवा के साथ संघर्ष
• राणा सांगा जब शासक बना उस समय मालवा पर सुल्तान नासिरूद्दीन शासन कर रहा था। 1511 ई. में सुल्तान की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार संघर्ष हुआ जिसमें मेदिनीराय की सहायता से महमूद खिलजी द्वितीय मालवा का नया सुल्तान बना। इससे मेदिनीराय का कद बढ़ गया और वह अप्रत्यक्ष रूप से मालवा का शासक बन गया इसलिए मालवा के अमीरों ने गुजरात की सहायता से मेदिनीराय को इस स्थिति से हटा दिया।
मेदिनीराय राणा सांगा की शरण में चला गया जिससे मालवा और मेवाड के मध्य संघर्ष हुआ तथा सांगा उसमें विजयी हुआ। मालवा का महमूद खिलजी द्वितीय पराजित हो गया।
महाराणा सांगा और दिल्ली सल्तनत
• राणा सांगा ने दिल्ली सल्तनत को निर्बल पाकर उसके अधीनस्थ वाले मेवाड़ के निकटवर्ती भागों को अपने राज्य में मिलाना आरंभ कर दिया प्रारंभ में सिकन्दर लोदी ने सांगा का विरोध नहीं किया। परन्तु इब्राहिम लोदी के दिल्ली सल्तनत का शासक बनते ही इब्राहिम लोदी ने मेवाड़ पर चढ़ाई शुरू कर दी।
1. खातौली का युद्ध :-
• 1517 ई. में वर्तमान कोटा जिले में स्थित खातौली नामक स्थान पर इब्राहिम लोदी व राणा सांगा की सेना में युद्ध हुआ जिसमें सुल्तान पराजित होकर भाग गया।
• • राणा सांगा ने सल्तनत के एक शहजादे को बन्दी बना लिया था जिसे बाद में दण्ड देकर रिहा कर दिया।
इस युद्ध का उल्लेख बाबरकृत बाबरनामा में मिलता है।
इस युद्ध में तलवार से सांगा का बायां हाथ कट गया और घुटने पर तीर लगने से वह हमेशा के लिए लंगड़ा हो गया था।
2. बाड़ी का युद्ध :-
• वर्ष 1518 में वर्तमान धोलपुर में स्थित बाड़ी नामक स्थान पर राणा सांगा व दिल्ली सल्तनत के शासक इब्राहिम लोदी के मध्य दूसरा युद्ध हुआ।
• इब्राहिम लोदी ने मियाँ हुसैन तथा मियाँ माखन के साथ एक बड़ी सेना को साँगा के विरुद्ध खातौली की पराजय का बदला लेने भेजा। इस सेना का नेतृत्व मियाँ माखन द्वारा किया गया था।
• बाबरनामा के अनुसार धोलपुर की लड़ाई में राजपूतों (सांगा) की विजय हुई।
• इन विजयों से उत्तरी भारत का नेतृत्व सांगा को प्राप्त हो गया। दिल्ली के शासक को परास्त करने से राजनीतिक धुरी मेवाड़ की ओर घूम गई सभी शक्तियाँ (देशी और विदेशी) सांगा की शक्ति को मान्यता देने लगी तथा सांगा उत्तर भारत का शक्तिशाली शासक बन गया। यह मेवाड़ की शक्ति की चरम सीमा थी।
बाबर और महाराणा सांगा
बाबर ने लोदी सामन्तों से निमंत्रण पाकर दिल्ली सल्तनत पर चढ़ाई की तथा पानीपत के युद्ध (1526 ई.) में इब्राहिम लोदी को परास्त कर आगरा व दिल्ली पर अधिकार कर लिया।
• बाबर भी राणा सांगा की भाँति महत्वकांक्षी शासक था।
• राणा सांगा के संबंध में राजपूत राजाओं व सामतों (रावों) का विश्वास था कि सांगा दिल्ली पर हिन्दु शासन स्थापित करने की क्षमता रखता है। बाबर भी भलीभाँति राणा सांगा की मानसिक और भौतिक स्थिति को पहचानता था। इसलिए बाबर सांगा से युद्ध के लिए बहाना चाहता था।
• बाबर के अनुसार राणा सांगा ने उससे वादा किया था कि जब वह इब्राहिम लोदी पर आक्रमण करेगा तो सांगा उसकी मदद करेगा किन्तु राणा सांगा ने उसकी कोई मदद नहीं की, परन्तु इस आरोप की पुष्टि नहीं होती है। चूँकि दोनों ही शासक शक्तिशाली एवं महत्वकांक्षी थे। अतः दोनों के मध्य युद्ध निश्चित था।
बाबर व महाराणा सांगा के मध्य संघर्ष के प्रमुख कारण :
1. सांगा पर वचनभंग का आरोप :
• तुर्की भाषा में बाबर लिखित ‘तुजुक-ए-बाबरी’ के अनुसार “सांगा ने काबुल में मेरे पास दूत भेजकर दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए कहा, उसी समय सांगा ने स्वयं आगरा पर हमला करने का वायदा किया था, किन्तु सांगा अपने वचन पर नहीं रहा।”
• इतिहासकारों का मानना है कि सांगा बाबर से पहले ही दो बार इब्राहिम लोदी को पराजित कर चुका था ऐसे में उसके विरुद्ध काबूल से बाबर को भारत आमंत्रित करने का आरोप तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता।
2. महत्त्वकांक्षाओं का टकराव :
• बाबर इब्राहिम लोदी पर विजय के बाद संपूर्ण भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। हिंदुपत सांगा को पराजित किए बिना ऐसा संभव नहीं था।
3. राजपूत-अफगान मैत्री :
• यद्यपि पानीपत के प्रथम युद्ध में अफगान पराजित हो गए थे किन्तु उन्होंने बाबर को भारत से बाहर निकालने के लिए सांगा से सहायता माँगी अफगानों के नेता हसनखां मेवाती तथा मृतक सुल्तान इब्राहिम लोदी के भाई महमूद लोदी ने मेवाड़ महाराणा से शरण मांगी।
• राजपूत-अफगान मोर्चा बाबर के लिए भय का कारण था। अतः उसने सांगा की शक्ति को नष्ट करने का फैसला लिया।
4. सांगा द्वारा सल्तनत के क्षेत्रों पर अधिकार करना :
• पानीपत के युद्ध से उत्पन्न अव्यवस्था का लाभ उठाकर सांगा ने खण्डार दुर्ग (रणथम्भौर के निकट) व उसके आस-पास के 200 गाँवों को अधिकृत कर लिया जिससे वहाँ के मुस्लिम परिवारों को पलायन करना पड़ा।
• दोनों शासकों ने भावी संघर्ष को देखते हुए अपनी-अपनी स्थिति सुदृढ़ करनी प्रारंभ कर दी।
मुगल सेनाओं ने बयाना, धोलपुर और ग्वालियर पर अधिकार कर लिया।
1. बयाना का युद्धः- महाराणा सांगा vs बाबर
• फरवरी 1527 ई. में सांगा रणथम्भौर से बयाना पहुँच गया। बयाना दुर्ग पर बाबर की तरफ से मेंहदी ख्वाजा दुर्ग के रक्षक के रूप में तैनात था। सांगा ने दुर्ग को घेरकर मुगल सेना को कमजोर कर दिया।
• बाबर ने बयाना की रक्षा के लिए मोहम्मद सुल्तान मिर्जा की अध्यक्षता (नेतृत्व) में सेना भेजी किन्तु राजपूतों ने इस सेना को परास्त कर खदेड़ दिया। अंततः 16 फरवरी, 1527 ई. को बयाना पर राजपूतों (सांगा) की विजय हुई।
• बयाना के युद्ध में राजपूतों के साहस ने मुगलसेना को भयभीत एवं हताश कर दिया बयाना से आगरा लौटे शाहमंसूर किस्मती आदि से राजपूतों की वीरतापूर्ण प्रशंसा ने बाबर के सैनिकों को हतोत्साहित कर दिया।
• इसी समय एक मुस्लिम ज्योतिषि मुहम्मद शरीफ ने भविष्यवाणी की कि “मंगल का तारा पश्चिम में है, इसलिए पूर्व से लड़ने वाले पराजित होंगे।” बाबर की सेना की स्थिति पूर्व में ही थी।
• बाबर ने सेना के गिरते मनोबल रोकने व उत्साहित करने के लिए कभी शराब ना पीने की प्रतिज्ञा की और शराब पीने की सुराहियों व प्यालों को तुड़वाकर गरीबों में बाँट दिया।
• बाबर ने सैनिकों में जोश भरने के लिए धार्मिक भावनाओं का प्रयोग किया।
• बाबर के शब्दों में “सरदारों और सिपाहियों। प्रत्येक मनुष्य, जो संसार में आता है अवश्य मरता है। जब हम चले जायेंगे तब एक खुदा ही बाकी रहेगा। जो कोई जीवन का भोग करने बैठेगा, उसको अवश्य मरना भी होगा। इस संसाररूपी सराय से सभी को एक दिन विदा होना है। इसलिए बदनाम होकर जीने की अपेक्षा प्रतिष्ठा के साथ मरना अच्छा है। मैं भी यही चाहता हूँ कि कीर्ति के साथ मृत्यु हो तो अच्छा होगा, शरीर तो नाशवान् है।
खुदा ने हम पर बड़ी कृपा की है कि इस लड़ाई में हम मरेंगे तो शहीद होंगे और जीतेगें तो गाजी कहलायेंगे। इसलिए सबको कुरान हाथ में लेकर कसम खानी चाहिए कि प्राण रहते कोई भी युद्ध में पीठ दिखाने का विचार न करे।”
• बाबर ने रायसेन के सरदार सलहदी तंवर के माध्यम से सुलह की बात भी चलाई। राणा सांगा ने सुलह का यह प्रस्ताव अपने सरदारों के समक्ष रखा परन्तु सरदारों को सलहदी तंवर की मध्यस्थता पसंद नहीं आई इसलिए उन्होंने अपनी सेना की प्रबलता (मजबूती) और बाबर की निर्बलता प्रकट कर संधि की बात बनने नहीं दी।
• संधि वार्ता का लाभ उठाते हुए बाबर तेजी से अपनी तैयारी कर खानवा के मैदान में आ डटा।
2. खानवा का युद्ध : [ 16 मार्च, 1527 ]
• मेवाड़ के संग्रामसिंह (सांगा) द्वारा विभिन्न शासकों को भेजे निमंत्रण (पाती परवण प्रथा) पर अफगान नेता हसनखाँ मेवाती तथा महमूद लोदी, राजपूताने के जिनमें मारवाड़ का मालदेव, आमेर का पृथ्वीराज, ईडर का राजा भारमल, मेड़ता के वीरमदेव मेड़तिया वागड़ का रावल उदयसिंह, सलुम्बर का रावत रत्नसिंह चंदेरी का मेदिनीराय, सादड़ी का झाला अज्जा, देवलिया का रावत बाघासिंह, जालौर के अखेराज सोनगरा, सिरोही का अजराज देवड़ा, ऊपरमाल का अशोक परमार और बीकानेर के कुंवर कल्याणमल ससैन्य सांगा की सहायतार्थ पहुँच गए।
• कविराज श्यामलदास कृत “वीर विनोद” के अनुसार 16 मार्च, 1527 ई. को सुबह खानवा (भरतपुर) के मैदान में युद्ध प्रारंभ हुआ।
नोट:- गोपीनाथ शर्मा ने यह तिथि 17 मार्च, 1527 बताई है।
• पहली मुठभेड़ में बाजी राजपूतों के हाथ लग चूकी। राजपूतों के वाम पार्श्व में मेदनीराय, मालदेव आदि योग्य सरदार थे। जिनका मुकाबला मलिक कासिम खुसरो कोककुलताश जैसे मुगल योद्धा नहीं कर सके लेकिन बाबर ने इनको समयोचित सहायता देकर बचा लिया।
परन्तु बाबर के तोपची मुस्तम्फा ने तोपों से गोलों की वर्षा आरंभ कर दी। बारुद व गोलियों का सामना राजपूती तीर व तलवार नहीं कर सके राणा सांगा ने सेना के गिरते मनोबल को देखकर स्वयं को युद्ध में झोंक दिया। शत्रुओं के समक्ष अभिदर्शित हुए सांगा को दुर्भाग्यवश एक तीर लग गया जिससे सांगा मूर्छित हो गया।
• सांगा को मूर्छित अवस्था में आमेर के पृथ्वीराज, जोधपुर के मालदेव व सिरोही के अक्षय राज आदि बसवा (दौसा) ले गए।
युद्ध संचालन के लिए सरदारों ने सलूंबर के रावत रत्नसिंह चुण्डावत से सैन्य संचालन की प्रार्थना की।
• रतनसिंह ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए कहा कि ‘मेरे पूर्वज मेवाड़ का राज्य छोड़ चुके हैं इसलिए मैं एक क्षण के लिए भी राज्य चिह्न धारण नहीं कर सकता परन्तु जो कोई राज्यछत्र धारण करेगा उसकी पूर्ण रूप से सहायता करूंगा और प्राण रहने तक शत्रु से लडूंगा।
• विजय के उपरांत बाबर ने गाजी की पदवी धारण की और विजय- चिह्न के रूप में राजपूत सैनिकों के सिरों की एक मीनार बनवाई।
महाराणा सांगा की पराजय के कारण :
1. डॉ. जी.एस. ओझा के अनुसार :
बयाना विजय के तुरन्त बाद युद्ध ना कर बाबर को तैयारी का पर्याप्त समय देना।
• राणा के विभिन्न सरदार देश-प्रेम के भाव से युद्ध में सम्मिलित नहीं हुए थे अपितु सभी सरदारों के अलग-अलग स्वार्थ थे।
• कई राजपूत सरदारों के मध्य परस्पर शत्रुता थी जिससे सेना में समन्वय तथा तालमेल का अभाव था।
• संधि वार्ताओं ने इनके उत्साह को कमजोर कर दिया।
• राजपूत सैनिकों का परंपरागत हथियार से लड़ना वहीं बाबर का तोपखाना व तुलुगमा पद्धति।
• सांगा स्वयं का हाथी पर बैठकर युद्ध में उतरना तथा युद्ध स्थल से बाहर जाने से सैनिकों का मनोबल कमजोर हुआ।
राजपूतों में अलग-अलग सरदारों का नेतृत्व।
राजपूतों की हस्ति सेना के मुकाबले बाबर की अश्व सेना की गतिशीलता अधिक होना।
खानवा युद्ध का परिणाम :
भारत में राजपूतों की सर्वोच्चता का अंत हो गया।
भारतवर्ष में मुगल साम्राज्य स्थापित हो गया।
महाराणा सांगा के अंतिम दिन :
• बाबर जब चंदेरी के युद्ध में व्यस्थ था तभी सांगा ने बाबर से पराजय का बदला लेने का निश्चित किया।
• सांगा सेना लेकर कालपी के निकट ईरिच तक पहुँच गया वहाँ के गवर्नर अफाम ने सांगा का मुकाबला किया।
• उसी समय सांगा की तबीयत खराब हुई संभवतः उसके साथियों ने जो युद्ध नहीं चाहते थे उन्होंने सांगा को विष दे दिया।
• 46 वर्ष की आयु में कालपी में 30 जनवरी, 1528 ई. को सांगा का स्वर्गवास हो गया यहाँ से उसे माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) लाया गया। अमरकाव्य वंशावली के अनुसार सांगा का अंतिम संस्कार माण्डलगढ़ में किया गया।
महाराणा सांगा के रोचक तथ्य :
• सांगा के नेतृत्व में 108 के लगभग राजा एवं महाराजा संगठित हुए (डॉ. गोपीनाथ शर्मा)
• आपसी वैमनस्य के लिए प्रसिद्ध राजपूत शासकों को एक झण्डे के नीचे लाना सांगा की बड़ी उपलब्धि थी।
• खानवा युद्ध में सांगा के घायल हो जाने के बाद रायसेन का सिलहदी तंवर बाबर से मिल गया था। सिलहदी तंवर ने ही बाबर को राणा सांगा के युद्ध में अनुपस्थिति से अवगत करवाया था।
• बाबर ने सांगा के सन्दर्भ में लिखा है कि उसका मुल्क दस करोड़ की आमदनी का था, उसकी सेना में एक लाख सवार थे, उसके साथ सात राजा, नौ राव और एक सौ चार छोटे सरदार रहा करते थे। सांगा ने अपने देश की रक्षा में एक आँख, एक हाथ और एक पैर खो दिया, उसके शरीर पर अस्सी घाव थे। उसकी इसी स्थिति के कारण कर्नल जेम्स टॉड ने राणा सांगा को “सैनिकों का भग्नावशेष” कहा है।