भील विद्रोह (1818-1900)
• राजस्थान के दक्षिण-पश्चिमी भाग में उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा सिरोही में भील जनजाति का बाहुल्य रहा है।
• मेवाड़ में मराठाओं का हस्तक्षेप होने लगा जिससे महाराणा शक्तिहीन होने लगा इसी मौके का फायदा उठाकर भोमट प्रदेश के भीलों ने लूटमार व चोरी करना प्रारम्भ कर दिया। भील मुखिया (गमेती) मार्गों की रक्षा करने के लिए ‘बोलाई’ नामक कर तथा गाँवों की चौकीदारी करने के बदले लोगों से ‘रखवाली’ चौकीदारी कर वसूल करने लगे।
• भीलों का जीवन अंधविश्वास और तंत्र मंत्रों से पूर्ण था। वह अपने परम्परागत अधिकारों जैसे महुआ से शराब बनाना व उपयोग करना, जंगल की उपज पर जन्मसिद्ध अधिकार मानना आदि में हस्तक्षेप पसंद नहीं करते थे।
• 1818 में मेवाड़ और कम्पनी सरकार के बीच संधि हो जाने से मेवाड़ का प्रशासन पॉलिटिकल एजेन्ट कर्नल टॉड को सुपुर्द कर दिया।
कर्नल टॉड ने भोमट क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया। कर्नल टॉर्ड ने स्थानीय सेना भंग कर दी। चुंगी चौकिया स्थापित कर दी। महुआ से शराब बनाने पर प्रतिबंध लगा दिया। डायन प्रथा पर रोक लगा दी। कर्नल टॉड ने भील गमेतियों को ‘बोलाई कर’ वसूलने से रोकने की कोशिश की। यह भील विद्रोह का तात्कालिक कारण बना। भीलों ने 1818 में अंत तक सरकार को चेतावनी देकर अपने क्षेत्र की नाकेबंदी कर दी तथा राज्य के विरुद्ध बगावत का एलान कर दिया।
लम्बे समय तक राज्य का कोई भी अधिकारी भील क्षेत्र में घुस नहीं सका। 1820 ई. के आरम्भ में अंग्रेजों ने एक सैन्य अभियान भीलों के दमन हेतु भेजा, किन्तु इसे सफलता नहीं मिल सकी। इससे भी विद्रोह और अधिक तीव्र हो गया।
• दिसम्बर 1823 तक ब्रिटिश व राजकीय सेना ने मिलकर भील विद्रोह को दबा दिया, परन्तु क्षेत्र में स्थायी शांति स्थापित नहीं हो सकी। • डूंगरपुर व बांसवाड़ा राज्यों के भील भी उदयपुर राज्य के भीलों से प्रभावित होकर आन्दोलन करने लगे इसी कारण 1825 में इन क्षेत्रों में भी विद्रोह की घटनाएँ घटी।
• इनके दमन हेतु अंग्रेजी सेना भेजी गई किन्तु संघर्ष प्रारम्भ होने के पहले ही भील मुखिया ने मई, 1825 में समझौता कर लिया। इसी प्रकार का समझौता डूंगरपुर राज्य की सिमूर वारू, देवल एवं नन्दू पालों के भीलों ने भी किया। हालांकि समझौते एकपक्षीय थे किन्तु अंग्रेज इनके तहत लम्बे समय तक इन क्षेत्रों में शांति व्यवस्था बनाए रखने में कायम रहें।
• उदयपुर के भीलों ने ऐसे समझौते स्वीकार नहीं किये तथा अंग्रेजों व उदयपुर राज्यों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा।
• • जनवरी, 1826 में भील गरासिया मुखिया दौलतसिंह एवं गोविन्दराम ने भील फौज बनाकर पुलिस थानों पर आक्रमण किए।
• काफी लम्बे प्रयासों के बाद अंग्रेजों ने दौलत सिंह को आत्मसमर्पण के लिए राजी कर लिया उसके बाद यह विद्रोह समाप्त हुआ। अंग्रेजों व उदयपुर राज्य ने 1838 तक भीलों के प्रति उदार नीति अपनाई हालांकि कुछ छुट-पुट भील उपद्रव की घटनाएँ जारी रही, किन्तु फुल मिलाकर उदयपुर राज्य में शांति रही।
• 1836 ई. में बाँसवाड़ा राज्य में कुछ भील संघर्ष की घटनाएँ हुई, जिन्हें अंग्रेजी सेना की सहायता से बाँसवाड़ा, महारावल ने नियंत्रित कर लिया था।
1837 में माहीकांठा (गुजरात) के पॉलिटिकल एजेन्ट जेम्स आउट्रम ने इस क्षेत्र में ‘भील कोर’ बनाने का प्रस्ताव दिया। इसकी सिफारिश पर अप्रैल 1841 में उदयपुर राज्य के खैरवाड़ा में मेवाड़ भील कोर की स्थापना की गई। खैरवाड़ा को इसका मुख्यालय बनाया गया।
• मेवाड़ के भील संगों में खैरवाड़ा एवं कोटड़ा में दो छावनियां स्थापित की गई।
• अंग्रेजों के सैनिक उपाय ज्यादा कारगर साबित नहीं हुए 1844 में बाँसवाड़ा राज्य में छुटपुट भील विद्रोह हुए। इसी समय माही कांठा एजेंसी के अन्तर्गत पोसीना (गुजरात) एवं सिरोही राज्य के भील व गिरासिया विद्रोही हो गए थे।
• गुजरात में 1846 में हुए भील विद्रोह से प्रभावित होकर बाँसवाड़ा के भीलों ने भी विद्रोह कर दिया।
• बाँसवाड़ा राज्य ने अपने वकील कोठारी केसरीसिंह को सहायता हेतु वेस्टर्न मालवा ब्रिटिश एजेन्ट के पास भेजा तथा अंग्रेजी सेना की सहायता से 1850 ई. के अन्त तक भील विद्रोह को कुचल दिया।
• 1850 से 1855 तक शांतिकाल रहा किन्तु दिसम्बर, 1855 में उदयपुर राज्य के कालीबास के भील विद्रोही हो गए थे।
उदयपुर महाराणा ने 1 नवम्बर, 1856 को सवाई सिंह मेहता के नेतृत्व में भीलों के दमन हेतु एक सेना भेजी। सेना ने गाँवों में आग लगा दी तथा भारी संख्या में भीलों को मौत के घाट उतार दिया। 1857 की क्रांति से भील अनभिज्ञ थे अतः 1860 ई. तक छूट-पुट घटनाओं के अलावा कोई बड़ा विद्रोह नहीं हुआ।
1861 में उदयपुर के समीप खैरवाड़ा क्षेत्र में तथा 1863 में कोटड़ा के समीप भील उपद्रव हुए। मेवाड़ भील कोर ने इसका जिम्मेदार
उदयपुर राज्य को ठहराया, क्योंकि राज्य के प्रशासनिक अधिकारी भीलों के साथ उचित व्यवहार नहीं कर रहे थे। इन आधारों पर हाकिम
को स्थानांतरित कर दिया गया तथा सैन्य कार्यवाही व शांतियातों के द्वारा समझाकर भीलों को शांत किया गया।
• 1867 ई. में खेरवाड़ा व डूंगरपुर के मध्य देवलपाल के भीलों ने 1873-74 में बाँसवाड़ा के चिलकारी, शेरगढ़ तथा मध्य भारत के सैलाना व झाबुआ राज्यों तक भील विद्रोह की आग फैल गयी थी।
• 1881 के भील विद्रोह की चिंगारी पुलिस अत्याचारों ने प्रज्वलित की थी। इसका तात्कालिक कारण मार्च, 1881 में पड़ौना नामक गाँव में उत्पन्न एक समस्या बनी।
• मार्च, 1881 को बारापाल के थानेदार सुन्दरलाल ने अकबर हुसैन नामक एक सवार को किसी भूमि विवाद के मामले में गवाही देने के लिए पडूना के दो भील गमेतियों रूपा व कबेरा को बुलाने भेजा। गमेतियों ने जाने से इनकार कर दिया। तब सवार ने उन्हें बलपूर्वक ले जाने की धमकी दी। इस घटना से खैरवाड़ा के भील उत्तेजित हो उठे।
• भील ‘रिखवदेव ऋषभदेव’ के उपासक थे। रिखवदेव के पुजारी खेमराज भण्डारी ने भीलों को विद्रोह हेतु उकसाया।
• उन्होंने बारापाल के थानेदार सहित 16 व्यक्तियों को मार दिया। यह 19वीं सदी का सबसे भयानक भील विद्रोह था।
• 26 मार्च 1881 को महाराणा ने मामा अमानसिंह (राज्य का प्रतिनिधि), लोनारगन (अंग्रेज प्रतिनिधि) और कविराजा श्यामलदास (महाराणा का निजी सचिव) के नेतृत्व में एक राजकीय सेना बारापाल भेजी।
• 27 मार्च को सेना ने कई भील झोंपड़िया जला दी। फौज की कार्रवाइयों से बचने हेतु भीलो ने घरों को उजाड़कर पहाड़ियों की ऊँची चोटियों पर पहुँचकर सुरक्षात्मक स्थिति प्राप्त कर ली थी।
• अब भीलों ने राज्य की सेनाओं को आगे बढ़ने से रोक दिया। सेना ने रिखवदेव में अपना डेरा डाल दिया।
• लगभग छः सात हजार भीलों ने राजकीय सेना को घेर लिया। इस विद्रोह के प्रमुख नेता बीलखपाल का गमेती नीमा, पीपली का खेमा एवं सगातरी का जायेता था।
• 25 अप्रैल, 1881 को महाराणा के निजी सचिव श्यामलदास ने रिखवदेव मंदिर के पुजारी खेमराज के माध्यम से भील नेताओं से समझौता कर लिया।
• श्यामलदास ने आधा बराड़ (पालों पर लगने वाला वार्षिक कर) छोड़ना स्वीकार कर लिया तथा बारापाल व पडूना हत्याकाण्ड के लिए उन्हें क्षमादान दे दिया। इस बात पर भी सहमत हो गये कि जनगणना कार्यों से भीलों को कष्ट नहीं पहुँचेगा। इस समझौते से भयंकर भील विद्रोह समाप्त हुआ।
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