बाल विकास के महत्वपूर्ण सिद्धांत : ब्रूनर के संज्ञानात्मक विकास
बाल विकास के महत्वपूर्ण सिद्धांत ब्रूनर ने संज्ञानात्मक विकास को तीन स्तरों में विभाजित किया –
1. सक्रिय अवस्था (Enactive Stage): जन्म से 2 वर्ष बालक ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग कर सक्रिय रूप से अपना संज्ञान विकसित करते हैं।
2. प्रतिबिम्बात्मक अवस्था (Iconic Stage): 2 से 7 वर्ष बालक प्रतीकों एवं प्रतिमाओं का उपयोग कर चिंतन करते हैं।
3. संकेतात्मक अवस्था (Symbolic Stage): 7 से 11 वर्ष चिंतन में संकेतों का प्रार्दुभाव होता है। नोट : ब्रूनर की यह अवस्थाएँ पियाजे की प्रथम तीन अवस्थाओं संवेदीगामक, पूर्व संक्रियात्मक, मूर्त संक्रियात्मक के समानान्तर हैं। ब्रूनर का यह मानना है कि प्रौढ़ सांकेतिक चिंतन करते हैं किन्तु उनमें प्रतिबिम्बात्मक और सक्रिय चिंतन भी उपस्थित रहता है।
बाल विकास के महत्वपूर्ण सिद्धांत : वायगोत्सकी ने संज्ञानात्मक विकास
वायगोत्सकी ने संज्ञानात्मक विकास का सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत प्रस्तुत किया। उन्होंने संज्ञानात्मक विकास में समाज, संस्कृति, भाषा की भूमिका पर बल दिया।
Scaffolding : मदद की वह मात्रा जो व्यक्ति को सीखने के एक स्तर से दूसरे स्तर तक ले जा सकती है।
वास्तविक विकास का स्तर वह स्तर जहाँ व्यक्ति स्वयं बिना किसी की सहायता पहुँच सकता है। किसी मदद से यदि व्यक्ति किसी स्तर पर पहुँचता है तो उसे सम्भाव्य विकास का स्तर कहते हैं। इन दोनों के बीच का अन्तर समीपस्थ विकास का क्षेत्र (Zone of Proximal Development) कहलाता है।
वायगोत्स्की ने बालकों के संज्ञानात्मक विकास में भाषा को एक महत्त्वपूर्ण साधन बताया। अपने व्यवहार को नियोजित व निर्देशित करने के लिये बालकों के द्वारा किया जाने वाला भाषा का प्रयोग वायगोत्स्की के अनुसार आन्तरिक सम्भाषण है, निजी सम्भाषण है। पियाजे ने इसे अपरिपक्वता व आत्मकेन्द्रता कहा वहीं वायगोत्स्की ने इसे चिन्तन का एक महत्त्वपूर्ण साधन माना। इसमें वयस्कों, समव्यस्कों के साथ हुई अंतः क्रिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
बाल विकास के महत्वपूर्ण सिद्धांत : पियाजे का नैतिक विकास का सिद्धांत
जीन पियाजे के बालक-बालिकाओं के साक्षात्कार के आधार पर नैतिक विकास के तीन मुख्य स्तर बताए :
(i) नैतिक यथार्थवाद
(ii) नैतिक समानता (Moral Equality)
(iii) नैतिक सापेक्षता (Moral Relativism)
1. नैतिक यथार्थता (Moral Realism): 7-8 वर्ष तक
इसे विषम नैतिकता (Hetronomous Morality) अथवा विवशता की नैतिकता (Morality of Constrain) भी कहते हैं।
इस नैतिक स्तर पर जो कुछ भी बड़ों, नियमों, कायदों आदि के द्वारा तय किया जाता है वही उचित और सही होता है।
2. नैतिक समानता (Moral Equality) : 7-8 से 12 वर्ष तक
इस स्तर में सम-वयस्कों (Peers) के साथ अन्तः क्रिया में वृद्धि होती है। यह अन्तः क्रिया वस्तुतः समानता (Equalitarian) तथा लेने देने के सम्बन्धों (Give and Take Relationships) पर आधारित होती है। बालक सहयोगात्मक खेलों में अधिक रुचि लेने लगते हैं।
3. नैतिक सापेक्षता (Moral Relativism) : 12 वर्ष से ऊपर
नैतिक विकास का यह स्तर सर्वाधिक विकसित स्तर है। पियाजे ने इसे स्वतः नैतिकता/स्वायत्तता (Autonomos Morality) अथवा सहयोगात्मक नैतिकता (Morality of Co-operation) के नाम से भी सम्बोधित किया है। यह स्तर सामान्यतः 12 वर्ष की आयु में प्रारम्भ होता है। इस स्तर पर न्याय की संकल्पना मुख्यतः समानता (Equalitarian Concepts of Distributive Justice) पर आधारित होती है तथा विपरीत न्याय की समानता का प्रत्यय प्रबल हो जाता है। नैतिकता को पारस्परिक समानता पर आधारित स्वीकार किया जाता है।
नैतिक यथार्थता – नियमों का अंधा अनुसरण
नैतिक समानता – नियमों की व्याख्या
नैतिक सापेक्षिता – कार्यों की व्याख्या
बाल विकास के महत्वपूर्ण सिद्धांत : कोहलबर्ग का नैतिक विकास
अमेरिकी मनोवैज्ञानिक लॉरेंस कोहलबर्ग ने पियाजे के नैतिक विकास से संबंधित विचारों को विस्तृत कर नैतिक विकास के सिद्धांतों को प्रस्तुत किया।
उन्होंने 10 से 16 वर्ष की आयु के बच्चों से साक्षात्कार के आधार पर अपने नैतिक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
उन्होंने बच्चों के सामने कहानियों के रूप में नैतिक दुविधाओं (Moral Dilemmas) को प्रस्तुत किया इनमें Hienz Dilemma (हाइन्ज की दुविधा) सर्वाधिक प्रचलित हुई।
कोहलबर्ग ने नैतिक विकास के 3 प्रमुख स्तर व 6 प्रमुख सोपान बताए हैं।
1. पूर्व परम्परागत नैतिक तर्कणा (Pre Conventional Level):
4-10 वर्ष
नैतिक तर्कणा दूसरों के मानकों पर आधारित
कार्य का अच्छा या बुरा होना उसके भौतिक परिणाम पा आधारित होता है।
I. सज़ा और आज्ञाकारिता अभिविन्यास
(दण्ड एवं आज्ञाकारिता उन्मुखीकरण) :-
कार्य का स्थूल परिणाम उसे अच्छा/बुरा बनाता है।
बच्चे प्रायः दण्ड से बचने के लिए कार्य करते हैं।
एक छोटा बच्चा गृहकार्य अध्यापक की मार से बचने के लिए करता है।
II. यांत्रिक सापेक्षिक उन्मुखता
(इंस्ट्रुमेंटल रिलेटिविस्ट ओरिएंटेशन) :-
बच्चों की परस्परिकता व सहभागिता अपने फायदे के लिये होती है।
जैसे को तैसा की प्रवृत्ति (Tit for Tat)
वह अच्छा कार्य उसे मानता है, जिससे उसे व्यक्तिगत लाभ हो।
एक बच्चा कोई कार्य इसलिए करता है कि बदले में उसे कुछ प्राप्त हो।
2. परम्परागत नैतिक तर्कणा (Conventional Level) :
10-13 वर्ष
• दूसरों के मानकों/रूढ़ियों परम्पराओं को स्वयं में अंगीकृत कर लेता है।
परम्परागत नियमों/दायित्वों के प्रति समर्थन व औचित्य का भाव रहता है।
III. उत्तम लड़का अच्छी लड़की उन्मुखता
(अच्छा लड़का अच्छी लड़की ओरिएंटेशन) :-
बालक प्रशंसा व अनुमोदन के प्रति आकृष्ट होता है।
सहयोग को व्यक्ति के सर्वोत्तम आचरण के रूप में स्वीकार किया जाता है।
लोग उसके बारे में क्या कहेंगे, दुनिया क्या सोचेगी ऐसे भाव
एक बालक कक्षा में अच्छे नम्बर आने के बाद भी टीचर से कॉपी में Good, Very Good लिखने के लिए कहता है।
IV. सामाजिक क्रम संपोषित उन्मुखता
(सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने की दिशा):
सामाजिक दृष्टि से स्वीकृत नियमों का दायित्वों के अनुरूप कार्य करने की भावना।
मनुष्य नैतिकता के नियमों से बंधा हुआ है व उनसे ऊपर नहीं है।
कानून-व्यवस्था सर्वोपरि है।
3. उत्तर परम्परागत नैतिक तर्कणा (Post Conventional Level):
13 वर्ष से ऊपर
बालक का नैतिक आचरण पूर्णतः आंतरिक नियंत्रण में होता है।
V. सामाजिक अनुबंध अभिविन्यास
(सामाजिक अनुबंध अभिमुखीकरण) :-
प्रजातांत्रिक रूप से मान्य वैयक्तिक अधिकार व नियमों का पालन ।
नियमों व परम्पराओं का तार्किक व आलोचनात्मक ढंग से मूल्यांकन ।
VI. सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांत उन्मुखता
(सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांत) :-
व्यक्ति दूसरों के विचारों व नैतिक प्रतिबंधों से ऊपर उठकर मानव मात्र के कल्याण के बारें में सोचता है।
यह सिद्धांत तार्किक व्यापकता, सार्वभौमिकता व एकरूपता से युक्त होते है।
परोपकारिता का भाव।
यह नैतिकता की उच्चावस्था है।
1 प्रतिशत लोग ही यहाँ तक पहुँच पाते है। जैसे- महात्मा गांधी, भगत सिंह, देश के जवान आदि।
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