गणित शिक्षण विधिया : व्याख्यान विधि –
शिक्षण की प्राचीनतम विधि है जिसमें शिक्षक पूर्व तैयारी करके विषय-वस्तु को व्याख्यान के माध्यम से संप्रेषित करता है तथा विद्यार्थी तथ्यों/सूचनाओं/ज्ञान का श्रोता के रूप में संग्रहण करते हैं।
व्याख्यान का आधार बालकों/श्रोताओं का पूर्व ज्ञान होता है। अतः यह विधि उच्च कक्षाओं के लिए अधिक उपयोगी मानी जाती हैं।
व्याख्यान विधि के सोपान- निम्न सोपान होते है
1. व्याख्यान की पूर्व तैयारी
2. प्रस्तुतीकरण
3. विद्यार्थियों द्वारा तथ्यों को संग्रहण
व्याख्यान विधि के सोपानों में प्रस्तुतीकरण को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता हैं।
व्याख्यान विधि के गुण-
1. सरल तथा तीव्र गति से चलने वाली प्रक्रिया है जो पाठ्यक्रम के समय पर दोहरान/पुनरावृत्ति के दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
2. शिक्षण प्रक्रिया के दौरान ऐतिहासिक एवं तथ्यात्मक विवेचना के दृष्टिकोण से श्रेष्ठ विधि हैं।
3. सभी विधियों की सहायक विधि मानी जाती है क्योंकि इसका प्रयोग आंशिक रूप से सभी विधियों में होता हैं।
4. अल्पव्ययी विधि है जिससे किसी विशेष मुक्ति अथवा उपकरणों की आवश्यकता नहीं होती।
व्याख्यान विधि के दोष-
1 शिक्षक केंद्रित प्रभुत्ववादी विधि है। जिसमें विद्यार्थी निष्क्रिय श्रोता की भूमिका में होता हैं।
2. एक पक्षीय (one way) प्रक्रिया हैं।
3. अमनोवैज्ञानिक विधि है जो बालकों के तर्क, चिंतन, निर्णय शक्ति, आलोचनात्मक दृष्टिकोण तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास नहीं करती।
4 वैयक्तिक भिन्नताओं का ध्यान नहीं रखती तथा बालकों के विभिन्न स्तरों/सूचियों/योग्यताओं/क्षमताओं की अपेक्षा करती है क्योंकि व्याख्यान एक स्तर का हीं दिया जाता हैं।
5 छोटे बालकों/छोटी कक्षाओं के लिए अधिक उपयोगी नहीं है क्योंकि इस विधि में शिक्षण का आधार, पूर्व ज्ञान होता हैं।
6. व्याख्यात में विद्यार्थियों द्वारा संकेंलित सूचनाओं/ तथ्यों की मात्रा शिक्षक द्वारा प्रेषित सूचनाओं/ तथ्यों से सदैव कम होती हैं।
7. व्यवहार के कौशलात्मक पक्ष का बिल्कुल भी विकास नहीं करती है।
गणित शिक्षण विधिया : प्रदर्शन विधि (Demonstration Method)-
विज्ञान शिक्षण की श्रेष्ठ विधियों में से एक विधि मानी जाती है जिसमें बालक अपनी ज्ञानेन्द्रियों विशेषतः (श्रवणेन्द्रिय तथा दृश्येन्द्रिय) का प्रयोग करके एवं मूर्त से अमूर्त का अनुभव करके सीखता हैं।
इसलिए इस विधि को “देखो सुनो और समझो” के सिद्धांत पर
आधारित विधि माना जाता है। इस विधि में अध्यापक सैद्धांतिक ज्ञान. की प्रस्तुति के पश्चात
उस पर आधारित प्रदर्शन कार्य करता है जिससे विद्यार्थियों को ज्ञान का तात्कालिक पुर्नबलन मिल जाता हैं।
प्रदर्शन विधि बालकों की सूक्ष्म प्रेषण क्षमता का विकास करती है तथा अवधारणाओं पर एक स्पष्ट समझ का निर्माण करती हैं।
प्रदर्शन विधि के सोपान-
1. योजना एवं तैयारी- जिस विषय-वस्तु का सैद्धांतिक ज्ञान कराया जाता है, उससे संबंधित प्रदर्शन योग्य सामग्री का. एकत्रकरण तथा संयोजन।
2. पाठ प्रस्तुतीकरण- सैद्धांतिक रूप से विषय-वस्तु का प्रस्तुतीकरण ।
3. प्रयोग प्रदर्शन कार्य- सैद्धांतिक विषय-वस्तु से संबंधित सामग्री का प्रयोग- प्रदर्शन करना।
4. श्यामपट्ट लेखन कार्य प्रदर्शन के दौरान लिए गये प्रेक्षणों/सूचनाओं/आरेखों/आवश्यक चित्रों को श्यामपट्ट पर लिखना।
5. प्रतिलेखन तथा निरीक्षण- विद्यार्थियों द्वारा श्यामपट्ट पर किये गए कार्य को नोटबुक में लिखना तथा अध्यापक द्वारा निरीक्षण करना।
प्रदर्शन विधि के गुण-
1. बालक मूर्त से अमूर्त की ओर सीखते है। फलस्वरूप अर्जित ज्ञात स्थायी होता हैं।
2. बालकों की तर्कशक्ति/निरीक्षण शक्ति/सूक्ष्म-चिंतन का पर्याप्त विकास होता हैं।
3. वैज्ञानिक घटनाओं का सटीक स्पष्टीकरण प्रस्तुत करती हैं।
4. सैद्धान्तिक ज्ञान का तात्त्कालिक पुनर्बलन हैं।
5. मनोवैज्ञानिक विधि हैं।
‘प्रदर्शन विधि के दोष-
1. द्विपक्षीय प्रक्रिया होने के बावजूद शिक्षक केंद्रित प्रभुत्ववादी विधि है क्योंकि सम्पूर्ण प्रक्रिया पर शिक्षक का नियंत्रण होता हैं।
2. यदि प्रदर्शन पूर्व उपकरणों का संयोजन ठीक प्रकार न हो तो अवधारणा स्पष्ट नहीं हो पाती है।
3. पर्याप्त संख्या में विद्यार्थी सक्रिय एवं सहभागी नहीं हो पाते।
4. कौशलात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं करती।
गणित शिक्षण विधिया : पर्यवेक्षित अध्ययन विधि (Suppervised Study Method)-
1971 में डेजी मॉरविन ने प्रतिपादन
अन्य नाम निरीक्षित/निर्देशित/समाजीकृत अभिव्यक्ति विधि ।
महत्वपूर्ण परिभाषाएं-
1. बाइविंग तथा बाइनिंग– “मेज या दरवाजे के चारों ओर बैठे हुए कार्यरत समूह या कक्षा के शिष्यों का शिक्षक द्वारा पर्यवेक्षण करना ही पर्यवेक्षित अध्ययन हैं।
2. बॉसिंग— “कुशल शिक्षक के निर्देशन से उच्च स्तरीय प्रदत्त कार्य को पूर्ण करने के लिए कुशल अध्ययन की तकनीकियों को समझने और उन पर अधिकार प्राप्त करने का नाम ही पर्यवेक्षित अध्ययन हैं।”
पर्यवेक्षित अध्ययन विधि में शिक्षक के मार्गदर्शन एवं पर्यवेक्षण में विद्यार्थियों को स्वअध्ययन करने हेतु निर्देश दिए जाते हैं तथा उन्हें आवश्यकतानुसार पाठ्य पुस्तकें तथा संदर्भ पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती है। विद्यार्थी पूर्ण संलग्नता से तथा अनुशासन से प्रदत्त अध्ययन को अपनी गति, क्षमता तथा योग्यतानुसार करते हैं एवं समस्या समाधान हेतु अध्यापक से आवश्यक परामर्श लेते हैं।
पर्यवेक्षित अध्ययन प्रक्रिया के चरण-
1. विद्यार्थियों को स्व अध्ययन के निर्देश देना।
2. शिक्षक द्वारा निरन्तर पर्यवेक्षण करना।
3. समस्याओं के समाधान हेतु विद्यार्थियों का उचित मार्गदर्शन करना तथा परामर्श देना।
4. पुनरावृत्ति कार्य।
पर्यवेक्षित अध्ययन विधि के गुण-
1. विद्यार्थी आत्मनिर्भर होकर स्व-अध्ययन करना सीखते हैं।
2. वैयक्तिक भिन्नता के सिद्धांत पर आधारित होती है क्योंकि यह विधि विद्यार्थियों को स्वगति, आवश्यकता, क्षमता तथा योग्यता के साथ अध्ययन का अवसर मिलता हैं।
3. निदान तथा उपचार दोनों ही इस विधि में निहित होते हैं।
4. पिछड़े तथा मंदबुद्धि बालकों के लिए उपयोगी हैं।
5. व्यक्तिगत संलग्नता के साथ स्व-अध्ययन किया जाता है अतः बालकों में अनुशासन का विकास होता हैं।
6. कक्षा में सामान्य शिक्षण के दौरान रहने वाली अधिगम रिक्तियों को कुछ सीमा तक इससे पूर्ण किया जा सकता है।
7. पृथक-पृथक देने की व्यवस्था होती है।
पर्यवेक्षित अध्ययन विधि के दोष-
1. केवल संज्ञानात्मक पक्ष का विकास करती है, भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्ष का नहीं।
2. गणित जैसी जटिल विषय-वस्तु का अध्ययन इस विधि में अधिक उपयोगी नहीं रहता।
3. अधिक समय लेने वाली प्रक्रिया हैं।
गणित शिक्षण विधिया : अभिक्रमित अनुदेशन (Programmed Instruction)-
अभिक्रमिक = Programmed = नियोजित/पूर्व नियोजित/पूर्व निर्धारित
वैचारिक स्त्रोत – सुकरात
अभिक्रमित अनुदेशन मॉडल पर सर्वप्रथम कार्य- सिडनी. L प्रैसी (1920 में).
अभिक्रमित अनुदेशन का जनक B.F. स्किनर
1920 में ‘सिडनी एल. प्रैसी’ तथा उसके सहयोगियों ने एक ऐसी प्रणाली विकसित की जिसमें बालकों के सम्मुख एक निश्चित क्रम में प्रश्नों को प्रस्तुत किया जाता था तथा उनके अंनुदिश अनुक्रिया करने के तुरन्त बाद उन्हें अनुक्रिया के सही या गलत होने की सूचना दी जाती थी।
प्रैसी के इस मॉडल को मिश्रित अभिक्रमित अनुदेशन कहा गया ‘तथा यह ‘हार्डवेयर उपागम’ पर आधारित था।
इस विधि को लेकर 1954 में अमेरिका के B.F. स्किनर ने अभिक्रमिक अनुदेशन प्रणाली के पहले प्रकार ‘रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन’ का प्रतिपादन किया जो सॉफ्टवेयर उपागम पर आधारित था इसे शिक्षण मशीन भी कहा जाता हैं।
अभिक्रमित अनुदेशन स्किनर के क्रिया प्रसूत अधिगम सिद्धांत पर आधारित है।
स्किनर का मानना था कि “निरंतर पृष्ठपोषण feed back से अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन करना अधिक सुगम होता हैं। (R- S)
स्किनर– “अभिघमित अनुदेशन शिक्षण की कला है तथा सीखने का विज्ञान हैं।
अभिक्रमित अनुदेशन विधि में सीखने योग्य जटिल विषय वस्तु की छोटे-छोटे पदों में (जिन्हें फ्रेम कहते हैं) विभक्त कर लिया जाता है तथा एक तार्किक क्रम (सरल से कठिन/ज्ञात से अज्ञात) में व्यवस्थित करके विद्यार्थियों के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है।
बालक के उन पदों के प्रति अनुक्रिया कर लेने के तुरंत बाद प्रतिपुष्टि (Feedback) दिया जाता है अर्थात् अनुक्रिया के सही/गलत की सूचना दी जाती है जिसे ‘तत्काल पुनर्बलनः’ कहा जाता हैं।
इस प्रणाली में विद्यार्थी स्वगति से क्रियाशील रहकर बाह्य अनुक्रिया करता है तथा उसे स्वमूल्यांकन का अवसर मिलता हैं।
अभिक्रमित अनुदेशन के सिद्धांत-
1. लघु पदों का सिद्धांत
2. बाह्य अनुक्रिया/क्रियाशलता का सिद्धांत
3. तत्काल पुनर्बलन का सिद्धांत
4. स्वगति का सिद्धांत
5. स्वमूल्यांकन का सिद्धान्त
कम्प्यूटर अथवा अन्य इलैक्ट्रॉनिक उपकरण इस प्रणाली को प्रस्तुत करने का साधन मात्र है।
अर्थात् अभिक्रमित अनुदेशन केवल कम्प्यूटर द्वारा शिक्षण नहीं है। जब तक कि यह अभिक्रमित अनुदेशन के सिद्धांतों का पालन नहीं करता, इसे अभिक्रमित नहीं माना जा सकता
अभिक्रमित अनुदेशन के मुख्य प्रकार-
1. रेखीय/बाह्य/श्रृखला अभिक्रमित अनुदेशन/स्किनेरियन प्रतिपादक – B.F. स्किनर जेम्स सी. हॉलैण्ड (1954 में)
2. शाखीय आंतरिक अभिक्रमित अनुदेशन प्रतिपादक – नार्मन क्राउडर (1960 में)
3. अवरोही/मैथमेट्रिस अभिक्रमित अनुदेशन प्रतिपादक – थॉमस गिलबर्ट (1962 में)
1. रेखीय/बाह्य/श्रृखंला / स्किनेरियन अभिक्रमित अनुदेशन-
प्रतिपादक – B.F. स्किनर, जेम्स सी हॉलैण्ड (1954 में)
स्किनर के इस मॉडल में पदों (फ्रेम) को एक सीधी रेखा में प्रस्तुत किया जाता है। बालक प्रथम फ्रेम के प्रति अनुक्रिया करता है, उसे अनुक्रिया के सही/गलत होने की प्रतिपुष्टि मिलती है तथा वह अगले फ्रेम पर पहुंच जाता हैं।
स्किनर के रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन में सर्वाधिक बल ‘अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन’ पर दिया जाता हैं अर्थात् पुनर्बलन मिलता हैं।
स्किनर के रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन के 4 पद है-
1. प्रस्तावना छंद
2. शिक्षण पद
3. अध्ययन पद
4. परीक्षण पद
गुण-दोष-
1. निर्माण सरल होता हैं।
2. सरल रेखीय व्यवहार परिवर्तन सम्भव होता हैं।
3. प्रतिभाशाली विद्यार्थी अधिक रूचि नहीं लेते हैं।
4. अनुक्रिया के गलत होने का कारण नहीं बताया जाता।
2. शाखीय/आंतरिक/अरेखीय/क्राउडेरियन अभिक्रमित अनुदेशन-
प्रतिपादक- नार्मन क्राउडर (1960 में)
इस अनुदेशन मॉडल में बड़े फ्रेम होते है जिनमें अधिक विषय सामग्री होती हैं।
2 प्रकार के फ्रेम
(A) मुख्य फ्रेम
(B) उपचारात्मक फ्रेम (शाखाओं के रूप में)
क्राउडर ने इस अनुदेशन मॉडल में निदान तथा उपचार पर सर्वाधिक बल दिया गया है।
इस मॉडल में फ्रेम के आकार बड़े होते है तथा उनकी शाखायें होती है। फलस्वरूप निर्माण में अधिक समय लगता हैं।
इस अनुदेशन मॉडल में अनुक्रिया के गलत होने पर उसके कारणों की व्याख्या के फ्रेम होते है जिन्हें उपचारात्मक फ्रेम
कहते हैं।
3. अवरोही/मैथमेटिक्स अभिक्रमित अनुदेशन प्रतिपादक – थॉमस गिलबर्ट (1962 में)
इस अनुदेशन में अंतिम पद के प्रति अनुक्रिया सबसे पहले तथा प्रथम पद के प्रति अनुक्रिया सबसे अंत में की जाती है। अर्थात् अनुक्रियाएं उल्टे क्रम में होती है इसीलिए इसे अवरोही अनुदेशन कहा जाता हैं।
इस मॉडल में विषय वस्तु की अपेक्षा अनुक्रियाओं पर अधिक बल दिया गया है।
कम्प्यूटर आधारित अभिक्रमित अनुदेशन-
प्रतिपादक- लॉरेन्स स्टालरों, डेलियल डेविस
गणित शिक्षण विधिया : समस्या समाधान विधि (समस्या समाधान विधि)-
प्रयोजनवाद (Pragmatism) के सिद्धांत पर आधारित ।
प्राचीनकाल में सुकरात तथा सेंट थॉमस से इस विधि का संबंध ज्ञात होता है किंतु आधुनिक समय में ‘जॉन ड्यूवी’ के समस्या समाधान विधि पर विचार प्रमुख माने जाते हैं।
समस्या समाधान विधि की कार्यपद्धति प्रायोजना विधि से मिलती है कितुं जहां प्रयोजना विधि में समस्याओं का समाधान क्रियात्मक – रूप से किया जाता है वहीं समस्या समाधान विधि में सैद्धांतिक रूप से समाधान प्राप्त किए जाते हैं।
समस्या समाधान विधि मानसिक क्रियाओं को महत्व देने की विधि मानी जाती है तथा इसमें बालकों के सम्मुख परिस्थितियों का निर्माण करके समस्या का चयन बालकों द्वारा किया जाता है तथा क्रियाशील रहकर उस समस्या के हल में सम्बन्धित तथ्यों का संकलन करके अपनी तर्कशक्ति, निर्णयशक्ति तथा विचारशक्ति द्वारा समाधान तक पहुंचा जाता हैं।
महत्वपूर्ण परिभाषाएं-
वुड के अनुसार- “समस्या समाधान विधि निर्देश की वह विधि है जिसके द्वारा सीखने की प्रक्रिया को उन चुनौतीपूर्ण स्थितियों के सृजन द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है जिनकी समाधान करना आवश्यक हैं।
जॉन डी.वी. के अनुसार- “समस्या समाधान विधि का प्रयोग शिक्षा की प्रथम आवश्यकता है। इस प्रविधि में निश्चित सोपानों का प्रयोग करते हुए समस्याओं का समाधान प्राप्त किया जाता हैं।
समस्या समाधान विधि के चरण-.
1. समस्या की उपस्थिति/प्रस्तुति
2. समस्या का चयन
3. समस्या का परिभाषीकरण/विश्लेषण
4. समस्या के समाधान से सम्बन्धित तथ्यों का संकलन
5. परिकल्पनाओं का निर्माण
6. परिकल्पनाओं का परीक्षण
7. निष्कर्षो की प्राप्ति/परीक्षण।
समस्या समाधान विधि के गुण-
1. बाल केन्द्रित विधि है।
2. मानसिक क्रियाओं/शक्तियों जैसे तर्क, चिंतनन्, निर्णय शक्ति का विकास करती हैं।
3., समस्याओं के समाधान खोजने के कौशल का विकास करती हैं।
4. सामूहिक हल खोजने की प्रकृति का विकास करती हैं।
5. सक्रिय रहकर तथा स्वयं के प्रयासों से तथ्य संकलन व निष्कर्षो की प्राप्ति तक पहुंचने की प्रवृति का विकास करती हैं।
समस्या समाधान विधि के दोष-
1. छोटे’ बच्चों/निम्न कक्षाओं के लिए उपयोगी नहीं है।
2. समस्या का समाधान तक पहुंचने की प्रक्रिया जटिल एवं लम्बी होने के कारण धैर्य की आवश्यकता होती है।
3. समय लेने वाली प्रक्रिया हैं। अतः पाठ्यक्रस का विकास धीमी गति में होता है।
गणित शिक्षण की विभिन्न तकनीकें-,
विधियां – पूर्व नियोजित प्रक्रिया/सोपानों से गुजरती हैं।
प्रविधियां (तकनीकें) – वे पूर्व नियोजित या सोपानों के रूप में नहीं होती है तथा इन्हें आवश्यकतानुसार विधियों की सहायता के लिए प्रयुक्त किया जाता हैं।
गणित शिक्षण की विधिया पार्ट 1 देखने के लिए यहाँ क्लिक करे click here
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