गणित शिक्षण की समस्याएँ :
गणित शिक्षण के दौरान कई कारकों के प्रभाव के कारण छात्रों में इस विषय का अधिगम पर्याप्त ढंग से नहीं हो पाता है और वे गणित में पीछे रह जाते हैं। जैसे- शिक्षण के दौरान कई बार समझ न आने के कारण बालक का ध्यान इधर-उधर चला जाता है। ऐसे कई कारण हैं जो गणित शिक्षण की प्रक्रिया में व्यवधान पैदा करते हैं। अध्यापन प्रक्रिया को सुगम एवं सुरुचिपूर्ण बनाना अध्यापकों एवं अभिभावकों का महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है। अध्यापन-अधि ागम प्रक्रिया में सीखने वालों (विद्यार्थियों) की भूमिका मुख्य होती है। इसके साथ ही शिक्षक का ज्ञान, कौशल, अपनी बात कहने का ढंग, छोत्रों के साथ व्यवहार आदि कारक भी शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। इन सभी कारकों पर यदि समुचित ध्यान नहीं दिया जाए तो शिक्षण प्रक्रिया में समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के दौरान छात्रों की क्षमताओं के अनुसार अनेक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। इन समस्याओं को निम्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
गणित शिक्षण की समस्याएँ : बच्चों की अक्षमता से उत्पन्न समस्याएँ :
शिक्षण अधिगम कार्य में शिक्षक एवं छात्रों दोनों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। यदि छात्र में किसी प्रकार की अक्षमता है तो शिक्षण प्रक्रिया में उसका समुचित ध्यान नहीं लग पाता है। बालकों से संबंधित अक्षमताएँ निम्न हो सकती हैं-
शारीरिक न्यूनता से ग्रस्त होनाः
बालकों के शरीर में यदि किसी प्रकार की अक्षमता है, जैसे- आँखें खराब होना, सुनने में कठिनाई, हकलाना-तुतलाना, शरीर के किसी अंग में दर्द हो, हाथ-पैर में किसी प्रकार का दोष हो या इसी प्रकार की अन्य कोई शारीरिक कमी हो तो ऐसे बच्चे शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में अपना पूरा ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते और वे गणित जैसे विषय, जिसमें पाठ्य-विषय के हर भाग का महत्त्व होता है, ठीक ढंग से ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं, फलस्वरूप वे गणित में पिछड़ जाते हैं। इसके अलावा ऐसे बालकों को समायोजन संबंधी अनेक कठिनाईयाँ भी झेलनी पड़ती हैं। ऐसे बच्चों में हीनता की भावना घर कर जाती है और शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में समुचित ध्यान न लगा पाने के कारण वे पीछे रह जाते हैं।
मानसिक अक्षमताएँः-
कई बच्चों में कई तरह के मानसिक विकार होते हैं जो उनकी शिक्षण अधिगम क्षमताओं में उत्पन्न करते हैं एवं उनके सीखने की क्षमता को प्रभावित करते हैं। बालकों में पाई जाने वाली मानसिक न्यूनताएँ निम्न प्रकार की हो सकती हैं:-
■ कुछ बालकों में बुद्धिलब्धि (I.Q.) बहुत कम होती है। वे मानसिक रूप से उतने परिपक्व नहीं होते जितने कि उन्हें किसी विशेष कक्षा में गणित की पढ़ाई करने के लिए होना चाहिए।
■ कुछ बालकों में एकाग्रता (Concentration Power) बहुत कम पाई जाती है। ये बालक कुछ समय निरंतर मन लगाकर कोई कमा नहीं कर सकते। गणित एक ऐसा विषय है जिसे सीखने के लिए एकाग्रता बहुत आवश्यक है। अतः इसके अभाव में वे अपनी पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं।
■ बालकों में मानसिक रोग या विकृतियाँ (Mental diseases) भी हो सकती हैं, जैसे किसी को दिमागी बीमारी हो, मिरगी या पागलपन के दौरे आते हों इत्यादि।
■ कुछ बच्चों की स्मरण शक्ति (Memory) बहुत ही कमजोर होती है। ऐसे बच्चे कुछ भी अच्छी तरह याद रख सकने में अपने आपको समर्थ नहीं पाते। अतः ऐसे बच्चों का गणित की पढ़ाई में पिछड़ जाना स्वाभाविक ही है।
बच्चों में मानसिक रूप से क्या न्यूनता अथवा दोष है, अध्यापक को यह पता लगाने का प्रयत्न करना चाहिए। मानसिक रोग होने पर संरक्षकों की सहायता से बच्चे का इलाज कराने का प्रबंध कराना चाहिए। मानसिक रूप से पिछड़े होने (I.Q. कम होने) की दशा में ऐसे बच्चों में गणित के नियमों, मूलाधारों (Fundamentals) तथा धारणाओं (Concepts) का व्यक्तिगत ६ यान देकर अच्छी तरह ज्ञान कराना चाहिए। सामान्य बच्चों को जिस तरह पढ़ाया जाता है उससे अधिक ध्यान देकर तथा समय खर्च करके ऐसे बच्चों को पढ़ाया जाना चाहिए। बच्चे पूरे मन से कुछ समय तक काम कर सकें इसके लिए उन्हें उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिएं। उनकी रूचि को बढ़ाकर उन्हें अधिक देर तक काम करने की आदत डाली जा सकती है। स्मरण शक्ति को तीव्र एवं अधिक उपयोगी बनाने के लिए भी आवश्यक उपाय किए जाने चाहिए। मौखिक गणित को पाठ्यक्रम में उचित स्थान दिया जाना चाहिए तथा सूत्र, संकेत, समीकरण इत्यादि ठीक प्रकार से उपयोग कर सकने की क्षमता विकसित करनी चाहिए।
विषयगत रूचि का अभावः
यदि छात्र में गणित विषय के अध्ययन में पर्याप्त रूचि का अभाव है तो वह गणित को ठीक ढंग से नहीं पढ़ सकता। ऐसी स्थिति में गणित शिक्षण में उस बच्चे का मन बिल्कुल नहीं लगता है और वह शिक्षण प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल नहीं हो पाता है। इस समस्या के समाधान हेतु आवश्यक है बालक को गणित को जोर-जबरदस्ती रटने पर बल देने की -जगह इस विषय में उसकी रूचि उत्पन्न की जाए। प्रारंभ से ही बच्चे को गणित का ज्ञान इस प्रकार प्रदान किया जाएं कि वह गणित के महत्त्व को समझकर उसमें पर्याप्त रूचि लेने लगे। इस हेतु उसे गणित को दैनिक उपयोग के क्रिया-कलापों से जोड़कर सिखाया जाना चाहिएं। उन्हें बिना समझे प्रश्न रटने या यांत्रिक ढंग से हल करने पर दबाव नहीं डालना चाहिए। विद्यार्थियों में गणित अध्ययन के प्रति स्वतंत्र चिंतन का विकास करना चाहिए ताकि उनकी गणित संबंधी योग्यता में वृद्धि हो।
नियमित रूप से गृहकार्य न करनाः
कुछ बच्चों की गृहकार्य से जी चुराने की आदत होती है। ऐसे बच्चे कक्षा में पढ़ाये जा रहे पाठ को भी ढंग से समझ नहीं पाते। ऐसे बच्चे गणित में पीछे रह जाते हैं। अध्यापक को कक्षा में ऐसे बच्चों को साथ लेकर शिक्षण कराने में कठिनाई होती है। कुछ बच्चे दूसरे बच्चों के गृहकार्य की हूबहू नकल कर लेते हैं। अतः गणित के जिस तथ्य, सिद्धान्त, या संकल्पना या कार्यविधि को अच्छी तरह गृहकार्य करके ठीक प्रकार एवं स्थाई रूव से सीख सकते थे, उसे नहीं समझ पाते और इस तरह वे उस दिन की पढ़ाई हुई बातों में पीछे रह जातें हैं। उनका यह पिछड़ापन बाद में स्कूल में जो कुछ पढ़ाया जाता है उसके अधिगम में बाधा उत्पन्न करता है।
व्यक्तिगत ध्यान न देनाः
गणित एक ऐसा विषय है जिसमें यह आवश्यक है कि प्रत्येक विद्यार्थी के ऊपर समुचित ध्यान दिया जाए। गणित के तथ्यों, सिद्धान्तों एवं प्रश्न हल करने की विधियों से परिचित कराते समय अध्यापक को यह ध्यान रखना चाहिए कि सभी बच्चों को स्पष्ट रूप से समझ में आ रहा है अथवा नहीं? सभी बच्चे अभ्यास कार्य ठीक प्रकार से कर पा रहे हैं अथवा नहीं? परन्तु गणित पढ़ाते समय सामूहिक हितों की रक्षा करने में अधिकतर वैयक्तिता (Individuality) का बलिदान कर दिया जाता है। इससे तीव्र एवं कुशाग्र बुद्धि वाले बालक तो शिक्षक के साथ चल पड़ते हैं जबकि मंदबुद्धि बालक पीछे रह जाते हैं। एक बार पीछे रह जाने पर उनमें हीनता की भावना पैदा हो जाती है और वे कोई भी नया ज्ञान प्राप्त करने में हिचकिचाते हैं।
अगर उस समय की उनकी योग्यता और सामर्थ्य को ध्यान में रखकर उन्हें शिक्षा दी जाए अथवी तीव्र बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा उनको ज्ञान देने में अधिक समय और शक्ति लगाई जाए तो वे भी सबके साथ-साथ चल सकते हैं। इस तरह अध्यापक को चाहिए कि वह सबकी योग्यता, शक्ति सामर्थ्य, रूचि और अभिरूचि को ध्यान में रखता हुआ इस तरह की व्यवस्था करे कि कोई भी ज्ञान प्राप्ति की दौड़ में व्यर्थ ही पीछे न रह जाए, इसके लिए अगर हो सके तो मंदबुद्धि बालकों के लिए विशेष कक्षाएँ भी लगाई जा सकती हैं।
कक्षा में अनुपस्थित रहनाः-
कई विद्यार्थी नियमित रूप से कक्षा में उपस्थित नहीं रहते बल्कि आये दिन कक्षा से बंक मार जाते हैं। गणित एक ऐसा विषय है जिसमें एक अध्याय/विषय दूसरे अध् याय/विषय से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। एक दिन कक्षा में न आने पर उस दिन पढ़ाये गए पाठ को बालक को समझने में कठिनाई होती है तथा उस कारण आगे के पाठों को समझना उसके लिए और कठिन हो जाता है। यह स्थिति दिनों-दिन बिगड़ती जाती है और अंततः वह गणित में बहुत पीछे रह जाता है। शिक्षण कार्य के दौरान अध्यापक के लिए ऐसे बच्चों को साथ लेकर चलना बहुत मुश्किल होता है। यदि वह पिछले दिन पढ़ाये गये पाठ को उसे पुनः समझाने लगे तो शेष सभी विद्यार्थियों का समय बर्बाद होने से उनमें असंतोष की भावना उत्पन्न होने का अंदेशा रहता है।
संवेगात्मक कारणः-
कुछ बच्चे संवेगात्मक रूप से कमजोर होते हैं। इसका कारण घर में उचित वातावरण का अभाव, माँ-बाप या अध्यापक वर्ग का अनियंत्रित व्यवहार यथा अंत्यधिक लाड़-प्यार, उपेक्षा या मास्पीट आदि हैं जिनकी वजह से बालक चिड़चिड़ा, दब्बू या तुनकमिजाजी हो जाता है। संवेगात्मक रूप से अनियंत्रित बालक के संबंध में कक्षा में शिक्षण कार्य के दौरान अध्यापक को बहुत सावधानी रखनी पड़ती है। कुछ विद्यार्थी स्वभावतः बहुत भावुक होते हैं या उनमें संवेगों की मात्रा कुछ अधिक ही होती है। फलस्वरूप या तो वे छोटी-छोटी बातों पर बहुत जल्दी क्रोध में आ जाते हैं या उन्हें अतिशीघ्र ही किसी कार्य अथवा विषय के विषय के प्रति विरक्ति हो सकती है। ऐसे बच्चों में सहनशीलता एवं धैर्य के गुण का अभाव होता है। शिक्षक को ऐसे बच्चों के शिक्षण कार्य में पर्याप्त विशेष सावधानी रखना आवश्यक होता है।
अध्यापक को ऐसे विद्यार्थियों के संवेगों (Emotions) के उचित शुद्धिकरण पर ध्यान देने का प्रयत्न करना चाहिए। संवेग हानि या लाभ किसी भी दिशा में प्रयुक्त किए जा सकते हैं। अतः अगर बालकों को मनोवैज्ञानिक रूप से समझकर उनकी कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए उन्हें ठीक प्रकार का वातावरण, मार्ग-निर्देशन एवं सुविधाएँ दी जाएँ तथा उनके आत्म-विश्वास में उत्तरोत्तर वृद्धि की जाए तो आशाजनक परिणाम निकल सकते हैं। मारने-पीटने अथवा अनावश्यक रूप से कठोर नियंत्रण द्वारा संवेगात्मक समस्याएँ हल नहीं हो सकतीं बल्कि उचित देखभाल, सहानुभूति और व्यक्तिगत मार्गनिर्देशन द्वारा ही इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
गणित शिक्षण की समस्याएँ :दोषपूर्ण हस्तलेख एवं रचना संबंधी अयोग्यताएँः
कुछ बच्चों का हस्तलेख (handwriting) बहुत ही गन्दा एवं अस्पष्ट होता है। उनके भाषा संबंधी अशुद्धियाँ भी बहुतायत में होती हैं। ऐसे बच्चों के कक्षा कार्य एवं गृहकार्य आदि का मूल्यांकन करने में अध्यापक को अत्यधिक कठिनाई आती है। इस कारण उनका परीक्षा परिणाम भी अपेक्षित से कम रहता है। कई बच्चे प्रारंभ से ही रचना एवं चित्र बनाने में अरूचि रखते हैं। गणित में स्केल, पेंसिल, चाँदा, प्रकार आदि ज्यामिततीय उपकरणों का प्रयोग ठीक ढंग से नहीं करते। इस प्रकार बच्चों के रचना संबंधी दोष एवं भाषा संबंधी कमियों की वजह से वे गणित विषय का सही तरह से अधिगम नहीं कर पाते। ऐसे बच्चों को कक्षा के अन्य बच्चों के साथ पढ़ाना अध्यापक के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है।
बच्चों की इस कमी के निवारण हेतु आवश्यक है कि बच्चों के लेख (भाषा संबंधी अशुद्धियों एवं अक्षरों की उचित बनावट) पर शुरू से ही पूरा ध्यान दिया जाए। उन्हें गणित की अपनी भाषा से भी ठीक तरह से अवगत कराया जाए। रेखागणित एवं चित्रकला संबंधी रचनाओं में उनकी रूचि एवं कुशलता बढ़ाने के लिए भी प्रारंभिक कक्षाओं से पूरी तरह प्रयुत्न किए जाने चाहिए। व्यक्तिगत रूप से उनको रचना कार्यों में सहयोग प्रदान कर उनमें रचना संबंधी आवश्यक योग्यता उत्पन्न की जा सकती है।
उपर्युक्त समस्यांओं के अलावा बालकों से संबंधित निम्न समस्याएँ भी शिक्षण-प्रक्रिया में रूकावट डालती हैं।
■ बालकों का अनुशासनहीन व्यवहार।
■ बालकों की चोरी की प्रवृत्ति।
■ छात्रों का कक्षा में देरी से आना।
■ कुछ छात्रों द्वारा अश्लील बातें करना।
शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया से संबंधित समस्याएँः-
ये ऐसे कारक हैं जिनका संबंध शिक्षक एवं शिक्षण प्रक्रिया तथा शिक्षण की परिस्थितियों से होता है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया से संबंधित समस्यात्मक कारक निम्न हैं:-
गणित शिक्षण की समस्याएँ : शिक्षक के पढ़ाने में कमीः
किसी भी विषय, विशेषकर गणित के शिक्षण में अध्यापक की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। उसका पढ़ाने का तरीका शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को गहरे से प्रभावित करता है। यदि शिक्षक का पढ़ाने का तरीका त्रुटिपूर्ण है, वह बालकों को ठीक प्रकार से नहीं पढ़ा पाता है, तो बच्चों की रूचि शिक्षण प्रक्रिया से हट जाती है और वे अन्य कार्यों में लग जाते हैं। अयोग्य तथा उत्साहहीन शिक्षक अध्यापन से पूर्व न तो पूरी तैयारी करके आते हैं और न ही उनकी विषय पर पूरी पकड़ होती है। फलस्वरूप वे कई बार बालकों को गलत तथ्य भी पढ़ा देते हैं, साथ ही वे विद्यार्थियों को गणित के सूत्र, सिद्धान्त एवं प्रत्यय सही ढंग से नहीं समझा पाते। इन कारणों की वजह से कई बालकों को गणित एक पहाड़ जैसा अत्यधि एक कठिन विषय लगने लगता है।
इस समस्या के समाधान हेतु आवश्यक है कि अध्यापक पूरी तैयारी करके कक्षा में शिक्षण कार्य करे तथा गणित के हर बिन्दू को सही ढंग से समझाते हुए आगे बढ़े।
शिक्षक को गणित शिक्षण की उपयुक्त शिक्षण विधियों कां प्रयोग करते हुए शिक्षण का उचित वातावरण उत्पन्न करते हुए सही ढंग से गणित विषय का शिक्षण कराना चाहिए तथा साथ ही समय-समय पर आवश्यक लिखित, मौखिक, अभ्यास कार्य एवं गृहकार्य देकर बच्चों में इस ज्ञान को स्थाई बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
गणित शिक्षण की समस्याएँ : शिक्षक का व्यक्तित्व एवं व्यवहारः
शिक्षक का व्यक्तित्व एवं बालकों के साथ व्यवहार विद्यार्थियों में उसके द्वारा पढ़ाये जाने वाले विषय के प्रति उचित या उपेक्षात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी होता है। कक्षा के सभी बच्चों का मानसिक स्तर समान नहीं होता। अतः गणित जैसे विषय को सभी बच्चे समान समय में उतने ही अच्छे नहीं समझ सकते। अतः शिक्षक को धैर्यवान होना आवश्यक है। जो शिक्षक क्रोधी स्वभाव के होते हैं एवं बच्चों को बात-बात में झिड़कते हैं या उन्हें छोटी-छोटी गलती पर मारते-पीटते हैं, उनके प्रति एवं उनके विषय के प्रति बच्चों के मन में एक डर पैदा हो जाता है। शिक्षक के ऐसे व्यवहार से जब कोई छात्र गणित के किसी सिद्धान्त या सूत्र को नहीं समझ पाता तो वह उसके बाद के तथ्यों एवं सूत्रों को समझने में कठिनाई का अनुभव करता है। कई बार शिक्षकों का छात्रों के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार भी उनमें असंतोष की भावना को जन्म दे देता है। फलस्वरूप बालक उस शिक्षक की बातों की उपेक्षा करना शुरू कर देते हैं और धीरे-धीरे वे पढ़ाई में पीछे रह जाते हैं।
इसलिए यह आवश्यक है कि अध्यापक जहाँ तक हो सके अपने व्यवहार में पर्याप्त संतुलन लाकर कक्षा के प्रत्येक विद्यार्थी को अपना पूर्ण स्नेह प्रदान करे तथा उनकी कठिनाइयों को समझकर उनका ठीक प्रकार से मार्ग निर्देशन करें।
गणित शिक्षण की समस्याएँ : व्यक्तिगत ध्यान न देनाः
गणित एक ऐसा विषय है जिसमें यह आवश्यक है कि प्रत्येक विद्यार्थी के ऊपर समुचित ध्यान दिया जाए। गणित के तथ्यों, सिद्धान्तों एवं प्रश्न हल करने की विधियों से परिचित कराते समय अध्यापक को यह ध्यान रखना चाहिए कि सभी बच्चों को स्पष्ट रूप से समझ में आ रहा है अथवा नहीं? सभी बच्चे अभ्यास कार्य ठीक प्रकार से कर पा रहे हैं अथवा नहीं? परन्तु गणित पढ़ाते समय अधिकतर सामूहिक हितों की रक्षा करने में वैयक्तिकता (Individuality) का बलिदान कर दिया जाता है। इससे तीव्र एवं कुशाग्र बुद्धि वाले बालक तो शिक्षक के साथ चल पड़ते हैं जबकि मंदबुद्धि बालक पीछे रह जाते हैं। एक बार पीछे रह जाने पर उनमें हीनता की भावना पैदा हो जाती है और वे कोई भी नया ज्ञान प्राप्त करने में हिचकिचाते हैं।
अगर उस समय की उनकी योग्यता और सामर्थ्य को ध्यान में रखकर उन्हें शिक्षा दी जाए अथवा तीव्र बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा उनको ज्ञान देने में अधिक समय और शक्ति लगाई जाए तो वे भी सबके साथ-साथ चल सकते हैं। इस तरह अध्यापक को चाहिए कि वह सबकी योग्यता, शक्ति, सामर्थ्य, रूचि और अभिरूचि को ध्यान में रखता हुआ इस तरह की व्यवस्था करे कि कोई भी ज्ञान प्राप्ति की दौड़ में व्यर्थ ही पीछे न रह जाए, इसके लिए अगर हो सके तो मंदबुद्धि बालकों के लिए विशेष कक्षाएँ भी लगाई जा सकती हैं।
अतः अध्यापक को यह प्रयत्न करना चाहिए कि विद्यार्थी गृहकार्य नियमित रूप से ठीक-ठीक प्रकार करें। उसे उचित मात्रा में उचित प्रकार का कार्य बच्चों को देना चाहिए। कभी भी उनकी योग्यता और सामर्थ्य के बाहर उन्हें गृहकार्य नहीं दिया जाना चाहिए। उनके गृहकार्य की व्यक्तिगत रूप से अच्छी तरह नियमपूर्वक जाँच की जानी चाहिए तथा उनकी कठिनाईयों को समझकर उनका उचित रूप से मार्गनिर्देशन किया जाना चाहिए। गृहकार्य को शिक्षा का एक अनिवार्य अंग मानकर परीक्षा एवं मूल्यांकन प्रणाली में उचित स्थान दिलाने की चेष्टा करनी चाहिए।
गृहकार्य की अधिकता एवं अस्पष्टताः गणित शिक्षण की समस्याएँ
कई शिक्षक छात्रों को अत्यधिक मात्रा में गृहकार्य देते हैं। गृहकार्य की अधिकता व उसके करने हेतु पर्याप्त समय नहीं मिल पाने के कारण छात्र उसे पूरा करके नहीं लाते। इसी प्रकार कई बार दिया गया गृहकार्य अस्पष्ट होता है अथवा ऐसा होता है जिसका कक्षा के अन्दर अभ्यास करवाया गयां नहीं होता या शिक्षक ने उसे पढ़ाया नहीं होता। ऐसी स्थिति में छात्र उसे न समझ पाने व गलती होने के डर से करते नहीं हैं। फलस्वरूप धीरे-धीरे उनमें गृहकार्य को न करने की आदत बन जाती है। इससे उनमें पाठ्य विषय-वस्तु की पूरी समझ विकसित नहीं हो पाती।
गणित शिक्षण की समस्याएँ : शिक्षकों की कमीः-
कई विद्यालयों में गणित पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या पर्याप्त नहीं होती है। फलस्वरूप कक्षा के कुछ कालांश खाली रहते हैं। शिक्षकों की कमी होने के कारण बालकों की पढ़ाई समुचित रूप से नहीं हो पाती। खाली कालांश में अनुशासनहीनता की समस्या भी उत्पन्न होने लगती है। शिक्षकों के अभाव का सर्वाधिक नुकसान औसत दर्जे के विद्यार्थियों एवं कमजोर विद्यार्थियों को होता है क्योंकि वे बिना अध्यापक के निर्देशन के गणित जैसे विषय को सीखने में कठिनाई अनुभव करते हैं। धीरे-धीरे एक स्थिति ऐसी आती है कि अध्ययन में उनकी रूचि ही समाप्त हो जाती है।
विषयवस्तु एवं अध्ययन के नीसर तरीकेः गणित शिक्षण की समस्याएँ
हमारे देश में आज भी पाठ्यक्रम परम्परागत हैं जिनका बालक के जीवन से अधिक सरोकार नहीं होता फलस्वरूप अध्ययन में उसकी गहरी रूचि जाग्रत नहीं हो पाती। इससे भी अधिक दुःखद स्थिति यह है कि विद्यालयों में आज भी अध्यापन के वही पुराने एवं परम्परागत तरीके ही अपनाये जा रहे हैं जो नीरस तथा दूषित व अमनोवैज्ञानिक हैं। इन शिक्षण विधियों में न तो छात्र के मानसिक व शारीरिक स्तरों का ध्यान रखा जाता है और न ही उनकी व्यक्तिगत विभिन्नताओं का। ऐसे तरीकों से बहुत जल्दी ही विद्यार्थी ऊंब जाते हैं एवं उनका ध्यान पढ़ाई से हट जाता है। अतः गणित जैसे विषय को बालकों के दैनिक जीवन से जोड़कर रूचिपूर्ण तरीके से अध्यापन कराया जाए तो बालक उसे बेहतर तरीके से समझ सकेंगे।
गणित शिक्षण की समस्याएँ : दोषपूर्ण पाठ्यक्रमः-
हमारे देश में कई विषयों के पाठ्यक्रम बदलते हुए समय की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले नहीं हैं। उनका बालक के वर्तमान व भावी जीवन से अधिक संबंध नहीं होता है। ऐसे पाठ्यक्रमों में उपयोगिता का अभाव है। ये पाठ्यक्रम जीवन से संबंधित न होकर सैद्धान्तिक मात्र हैं। फलतः इन पाठ्यक्रमों में बालकों की रूचि जाग्रत नहीं हो पाती है। इस वजह से कक्षा में शिक्षण प्रक्रिया में भी वे मन लगाकर सक्रिय रूप से भाग नहीं लेते। इस कारण से वे ऐसे विषयों में कमजोर रह जाते हैं। बोझिल व अरूचिकर पाठ्यक्रम का शिक्षण करना अत्यधि एक कठिन कार्य होता है।
गणित शिक्षण की समस्याएँ : पाठ्य सहगामी क्रियाओं से संबंधित समस्याएँ:-
बालक का बहुमुखी विकास शिक्षा का आधारभूत उद्देश्य है। छात्र के चहुँमुखी एवं संतुलित विकास के लिए आवश्यक है कि उसका शैक्षिक, शारीरिक, मानसिक, नैतिक, सांवेगिक एवं सामाजिक आदि सभी क्षेत्रों में पूर्ण विकास हो। बालक के इस बहुआयामी विकास को करने के उद्देश्य से विद्यालय में अनेक प्रकार की शैक्षणिक एवं शैक्षणेत्तर पाठ्य सहगामी क्रियाएँ एवं क्रिया-कलाप आयोजित किए जाते हैं। इन क्रियाकलापों में वाद-विवाद, निबन्ध् 1. कहानी लेखन, क्विज, अन्ताक्षरी, कवि सम्मेलन, विद्यालयी . पत्रिकाएँ, शैक्षणिक भ्रमण, खेलकूद, प्रदर्शिनियों का आयोजन, सेमीनारं, विद्यालय परिषद का चुनाव, औद्योगिक एवं वाणिज्यिक संस्थानों का निरीक्षण, एन.सी.सी. एवं राष्ट्रीय सेवा योजना, छात्र संसद् के क्रियाकलाप आदि शामिल हैं। इन क्रियाकलापों का आयोजन बालक की सर्वांगीण प्रगति में सहायक होता है। परन्तु विद्यालय में इन लाभकारी क्रियाकलापों के आयोजनों में अनेक बाधाएँ आती हैं। इस प्रकार की रूकावटें निम्न हैं-
विद्यालय के प्रशासन का रवैयाः कई विद्यालयों में प्रशासन के संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को पर्याप्त महत्त्व नहीं दिया जाता। वहाँ केवल विषयों के शिक्षण पर ही प्रभावी बल दिया जाता है ताकि स्कूलं का परीक्षा परिणाम अच्छा रहे। जबकि बालक के सम्पूर्ण विकास के लिए पाठ्यसहगामी क्रियाओं यथा खेलकूद वाद-विवाद, क्षेत्रीय भ्रमण, प्रदर्शनियाँ, मेले आदि का भी उतना ही महत्त्व होता है जितना कि विषयों के शिक्षण का।
खेलों के लिए पर्याप्त सुविधाओं का अभावः हमारे देश में अधि कांश स्कूलों में पर्याप्त खेल सुविधाओं का अभाव है। अधिकांश स्कूलों में न शारीरिक शिक्षकों की व्यवस्था है और न ही खेलों के लिए पर्याप्त सामान एवं खेल मैदान हैं। इसके अभाव में छात्रों को खेल की सुविधा नहीं मिल पाती है। फलस्वरूप उनकी खेल प्रतिभा दबी रह जाती है। अतः सभी विद्यालयों में बालकों को पर्याप्त खेल सुविधाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिए।
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